बिल्कुल सही कह रहे हैं सभी प्रक्रियाएं द्वंद्वात्मक होती है और मैंने पहले ही कहा है कि मेरी बात को निंदा नहीं आत्मालोचना समझा जाए क्योंकि बहुत दिनों से किसी पार्टी में हुए बिना भी मैं खुद को भी व्यापकता में कम्युनिस्ट आंदोलन का हिस्सा मानता हूं। आपकी इस बात से भी सहमत हूं कि आत्मावलोकन तथा आत्मालोचना का काम धीरज और वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक सच्चाई को स्वीकारने की मांग करता है जिसके बाद ही भविष्य के कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाई जा सकती है। आज सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के संचार-प्रसार) के रास्ते के तीन बड़े गतिरोधक हैं -- सांप्रदायिकता; जातिवाद (ब्रह्मणवाद) तथा जवाबी जातिवाद (नवब्रह्मणवाद) तथा इन सब का एक ही जवाब है इंकिलाब जिंदाबाद। जिसके लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, जिसकी पूर्व शर्त है सांप्रदायिक तथा जातिवादी मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति। हिंदुत्व सांप्रदायिकता ब्राह्मणवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है। विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है लेकिन एक बात निश्चित है कि भावी आंदोलन सामाडिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की द्वंद्वात्मक एकता की मांग करता है जिसका प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व रोहित बेमुला की शहादत के प्रतिरोध में शुरू हुए जेएनयू आंदोलन से निकला नारा, "जय भीम लाल सलाम" करता है।
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