कल सुबह की सैर से लौटते हुए ज्ञान की उत्कंठा से ओतप्रोत मित्र Raj K Mishra से टेलीफोन पर बातचीत में असगर वजाहत के व्यास समामान से पुरस्कृत नाटक 'महाबली' पर चर्चा के दौरान कबीर और तुलसी की तपलनात्मक क्रांतिकारिता पर बात हुई जिसके आधार पर उन्होंने एक लेख पोस्ट किया। उस पर कमेंट में एक अन्य युवा मित्र DS Mani Tripathi ने मेरे द्वारा तुलसी को क्रांतिकारी कहने पर आश्चर्य व्यक्त किया, उस पर :
तुलसीदास की क्रांति समझने के लिए उन्हें उनके ऐतिहासिक संदर्भ में रखकर पढ़ना होगा। भाषा ज्ञान की कुंजी है, ज्ञान पर वर्स्व के लिए उसे अभिजन की भाषा में कैद रखा जाता था, तुलसी ने उसे आमजन की भाषा में लिखकर रामकथा को जन जन तक पहुंचाया। यह सर्वविदित है कि अवधी में राम कथा लिखने के लिए तुलसी को यथास्थितिवादी ज्ञानियों के उग्र विरोध के चलते ही उन्होंने लिखा "मांग के खैबो, मसीत को सोइबो, लेबो को एक नू, दोबो को दोऊ"।
नाटक (महाबली) का एक पात्र पं. चंद्रकांत तुलसी को फटकारते हुए कहता है, "कुतर्क न करो तुलसी.. तुम अपने को रामभक्त कहते हो और राम को घूरे पर पहुंचाना चाहते हो.... हम जानते हैं अवधी में न वह शब्द भंडार है, न वह प्रतीक और बिंब, न वह छंद और अलंकार है, न वहलगरिमा और गंभीरता है. न सुंदरता और आकर्षण है, जो संस्कृत में है ..... अवधी में राम का अपमान और अनर्थ हो जाएगा"
इसी लिए पोस्ट में कहा गया है कि तुलसी की क्रांति व्यवस्था को तोड़ने या चुनौती देने की नहीं बल्कि उसकेके अंदर से ( from within the paradigm without quashing it) । कबीर की क्रांति व्यवस्था को चुनौती देती है और उसे तोड़ती है। challenges and quashes he paradigm) ज्ञान की उत्कंठा से ओतप्रोत, युवा मित्र Raj K Mishra को साधुवाद कि टेलीफोन पर छोटे से वार्तालाप को इतने सुंदर ढंग से लिपिबद्ध किया तथा थॉमस कुन की puzzle solving and revolutionary invention से तुलना कर समझाया कि आइंस्टाइन के पहले के वैज्ञानिक अन्वेषण within Newtonian paradigm थे आइंस्टाइन ने Newtonian paradigm को quash करके नए paradigm की स्थापना की। यही फर्क तुलसी और कबीर में है।
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