बेतरतीब 136
बचपन में छुआछूत से मोहभंग
ईश मिश्र
मेरा बचपन पूर्व-आधुनिक, ग्रामीण,
वर्णाश्रमी, सामंती परिवेश में बीता, हल्की-फुल्की दरारों के बावजूद वर्णाश्रम
प्रणाली व्यवहार में थी। सभी पारंपरिक, खासकर ग्रामीण, समाजों में पारस्परिक सहयोग
की सामूहिकता की संस्थाएं होती थीं। हमारे गांव में भी पारस्परिक सहयोग और
सहकारिता की कई संस्थाएं/रीतियां थीं। वैसे तो हर युग में सभी सामाजिक, सांस्कृतिक
तथा बौद्धिक संरचनाओं का मूल अर्थ ही रहा है। उपभोक्तावाद और व्यापारिकता गांवों
गहरी पैठ नहीं बना पाई थी। आज की तरह टेंट हाउस या बारात घर का प्रचलन नहीं था।
शादी व्याह तथा अन्य काम-काजों में दूह, दही का प्रबंध पारस्परिक सहयोग से होता
था। हर घर में एकाध खाट, दरी, चदरा और तकिया पर घर के किसी (प्रायः मुखिया) का नाम
लिखा था जिससे शादी व्याह में इकट्ठा करने और लौटाने में सहूलियत रहे। जाजिम और
भोजन पकाने के हंडा, कडाह जैसे बड़े बर्तन कुछ ही लोगों के पास होते थे लेकिन काम
सबके आते थे। सभी को सुलभ बैल से चलने वाली आंटा की चक्की गांव में एकाध लोगों के
पास होती थी। उपभोक्ता संस्कृति और व्यापारीकरण ने पारस्परिक सहयोग की सामूहिकता
को नष्ट कर दिया। गांव में लगभग सभी के पास छप्पर (छान्ह) के मड़ई-मड़हा होते थे।
छान्ह की छवाई तो खुद तथा मजदूर-मिस्त्री से करवा (छवा) लिया जाता था लेकिन उसे
मुड़ेर पर रखने (उठाने) के ले कई लोगों की जरूरत पड़ती थी। लोग मिलकर एक दूसरे की
छान्ह उठाते थे। खैर भूमिका लंबी न खींच कर मुख्य
मुद्दे पर आते हैं। यहां मैं गन्ने से गुड़ बनाने की प्रक्रिया में
पारस्परिक सहयोग के सामूहिकता की बात करना चाहता हूं और यह कि यह छुआ-छूत और
पवित्रता-अपवित्रता से मेरे मोह भंग कैसे निमित्त बना।
जिसका गन्ना होता वह या उसका मजदूर हौदी से
बाल्टी में रस निकालकर कड़ाह में डालता। और कड़ाह भर जाने पर गुलउर में ईंधन
झोंकता। तीन तरह के गुड बनते थे। चकरा (चकला) में बहुत अधिक औंटाकर डाला जाता
जिसका लड्डू (भेली) बनता जिसे आम तौर पर हम गुड़ कहते हैं। दूसरे तरह के गुड़ को
राब (शक्कर) कहते थे जो थोड़ा-थोड़ी गीला और दानेदार होता था, जिसका इस्तेमाल शरबत
तथा खीर वगैरह बनाने और रोटी के साथ खाने में होता था और तीसरा चोटा होता था जिसके
लिए रस को इतना पकाया जाता था कि वह गाढ़ा द्रव बन जाए। चोडा का प्रमुख इस्तेमाल
रस और शरबत, ठेकुआ (मीठी पूड़ी) तथा चोटही जलेबी आदि बनाने में होता था। मजदूरों
को नाश्ते (खरमिटाव) में कुछ चबैना/घुघुनी आदि के साथ गुड़(चोटे) का रस दिया जाता
था। छोटी सी कहानी की भूमिका बहुत लंबी हो गयी कि अब कहानी बता ही देनी चाहिए।
मैं 8-10 साल का रहा हूंगा जब इस बात पर मेरा ध्यान गया कि गुड़ बनाने और
भंडारण के लिए उसे रखने में जब तक श्रम की जरूरत होती थी तब तक पवित्रता/अपवित्रता
और छुआ-छूत का विचार नहीं होता था। मजदूर प्रायः दलित जाति के होते थे। हमारे घर
दो हलवाहे थे, लिलई चाचा और खेलावन चाचा। हम बच्चे उन्हें इज्जत से बुलाते थे और
वे लोग भी हमें बहुत प्यार करते थे। लेकिन तब की सामान्य बात (नॉर्मल) यह थी कि वे
हमारे बर्तन नहीं छू सकते थे। उनके अपने बर्तन थे जिनमें खाने के बाद धोकर वे पशुओं
के चारा बालने/रखने के मड़हे रखते। हलवाहे केवल हल ही नहीं जोतते बल्कि खेती और
पशुओं (गाय-भैंस-बैल) की देखभाल के और भी सब काम करते। जिस बाल्टी/गगरे से वे
पशुओं के नाद में पानी डालते, उनसे हम नहा नहीं सकते थे। खेत में उनके लिए हम
नाश्ता (कमिटाव) लेकर जाते तो रस/शरबत/मट्ठा ऊपर से उनके बर्तन में डालते।
लेकिन गन्ना बनने की
प्रक्रिया में गन्ना काटकर, छिलकर, बोझ बांधकर ढोकर कोल्हू तक वे ले आते तथा बैलों
को हांकर कोल्हू में गन्ना पेरते और नाद (हौदी) से बाल्टी में रस निकालकर कड़ाह
में उड़ेलते, गुलउर झोंकर गुड़ पकाते और कड़ाह से निकाल कर भेली के लिए चकले में
डालते तथा जब राब या चोटा बनता तो बाल्टी से कूंडा (बड़ा घड़ा) में डालते। तब तक
पवित्रता-अपवित्रता का सवाल नहीं विचारित होता था। यानि उत्पादन प्रक्रिया में जब
तक श्रम करने की जरूरत होती थी तब तक छुआ-छूत की कोई बात नहीं थी लेकिन एक बार
तैयार माल का भंडारण हो जाने के बाद वे उसे नहीं छू सकते थे।
यह देखकर ब्राह्मणीय पवित्रतावादी मान्यता और बर्तन के छुआछूत के
प्रचलन से मेरा मोहभंग हो गया। खेत में हलवाहों को खमिटाव (नाश्ता) लेकर जाता तो
निकालकर खाने-पीने के लिए उनके मना करने पर भी वर्तन उन्हें देकर एक और वर्जना
तोड़ता हल चलाने लगता। ब्राह्मण बालक को हल चलाना वर्जित था। हलवाहे मजाक में बाबा
से बताने की धमकी देते थे।
05.09.2022
फेस बुक में इस पोस्ट पर इवि के हमारे सुपर सीनियर चंद्रशेखर जी का कमेंट:
ReplyDeleteआज की पीढ़ी के लिए तो इसे समझना मुश्किल है। इसमें चिरई का भी वर्णन आवश्यक था। कराह में से गुड़ के लिए जब चकरे पर उलट दिया जाता था तो कराह को फिर भट्ठे पर रख लार बचे राब को बीच में इकट्ठा करके थोड़ा और गरम कर के ठंडा पानी डालते थे और फिर जमे हुए राब को हाथ से निकाल लेते थे। इसे चिरई कहते थे जिसे बच्चों में बाँट देते थे। बाक़ी पानी मीठा हो जाता था जिसे औटी कहते थे। इसे चाय की तरह पीते थे।
इन सब में कितना आनंद था।
खौलते गढ़े रस में आलू को तार में पिरो कर पका भी लेते थे। ताज़े आलू को रगड़ देने थे चिल्का निक जाता था तो यह आलू गुड़ की चलानी से मीठा भी हो जाता था। हाँ एक बात और जड़े में वह तापने का और ही मज़ा था।
Chandra Shekhar आपका कमेंट पढ़ने के बाद से ही याद करने की कोशिस कर रहा हूं कि चिरई ही कहते थे कि कुछ और? लिललिसी होती थी और खाने में दांतों को का व्यायाम हो जाता था। औटी का स्वाद रस और चाय दोनों से अलग होता था। गुड़ पकने के कड़ाह में पकी आलू के स्वाद की मिठास भी कुछ अलग होती थी।
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