अंधभक्त उच्च शिक्षा के बावजूद जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता (हिंदू-मुसलमान; बाभन-भमिहार....) से ऊपर उठकर इंसान तो बन नहीं पाते, उनसे वस्तुनिष्ठ इतिहासबोध की उम्मीद करना व्यर्थ है। समाज में नफरत फैलाने वाले और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सियासत के भरोसे मुल्क की संपदा अपने धनपशु आकाओं के सुपुर्द करने वाले हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सारे फिरकापरस्त राजनैतिक नेता और उनके जाहिल अंधभक्त हिंदू-मुसलमान नरेटिव से ही धर्म की दुकानदारी करके मानवता को शर्मसार करते हैं। अपने शासनकाल की स्वर्णजयंती (50वे साल) के उपलक्ष्य में, राम-सीता की तस्वीर वाले अकबर द्वारा जारी सोने और चांदी के सिक्के राष्ट्रीय संग्रहालय में आज भी संग्रहित हैं। जहां तक भारत को तोड़कर पाकिस्तान बनाने की बात है तो यह बांटो-राज करो की नीति के तहत औपनिवेशिक परियोजना थी जिसे कार्यरूप देने में औपनिवेशिक शासन के हिंदू-मुस्लिम कारिंदों (हिंदू महासभा-मुस्लिम लीग; आरएसएस-जमाते इस्लामी) ने निर्णायक भूमिका निभाया। दो-राष्ट्र का प्रस्ताव सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने 1937 में पारित किया और मुस्लिम लीग ने 1940 में। उसके बाद 1942 में जब मुल्क 'भारत छोड़ो', राष्ट्रीय आंदोलन में मशगूल था तब दोनो औपनिवेशिक कारिंदे (मुस्लिम लीग-हिंदू महा सभा) अपने औपनिवेशिक आकाओं की शह पर सिंध, उत्तर-पश्चिम प्रांत और बंगाल में साझा सरकारें चला रहे थे। भारतीय जनसंघ के पहले अध्यक्ष, श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल की मुस्लिमलीग-हिंदू महासभा की मिली-जुली सरकार में उप मुख्य मंत्री थे। सांप्रदायिक दुराग्रह तथा अफवाहजन्य इतिहासबोध से ऊपर उठकर वस्तुनिष्ठ इतिहासबोध से इतिहास पढ़ेंगे तो हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज को फिरकापरस्ती के जहर से प्रदूषित करना बंद कर मानवता की सेवा करेंगे। सादर।
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