Saturday, September 3, 2022

बेतरतीब 135 (पारस्परिक सहयोग के प्रचलन)

 शादी-व्याह या अन्य समारोहों में आजकल उत्तर भारतीयों में ताम-झाम और खर्चीले दिखावे का प्रचलन दक्षिण भारतीयों की सादगी का विलोम लगता है। लेकिन उत्तर भारत के गांवों और कस्बों में अहंकार और प्रदर्शन की यह प्रवृत्ति पारंपरिक नहीं बल्कि नई है, खासकर भूमंडलीकरण के बाद के दौर की जब नवउदारवादी, व्यापारिक, उपभोक्ता संस्कृति और राजनीति वर्णाश्रमी सामंतवाद के विरुद्ध नही, उसके सहयोग से अपनी जड़ों के विस्तार को व्यापकता प्रदान कर रही है। सभी पारंपरिक समाजों की ही तरह हिंदी क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग और सामूहिकता की संस्कृति प्रचलित थी। टेंट हाउस और कैटरिंग की संस्कृति अपरिचित थी। शादी-व्याह में चारपाई-विस्तर वगैरह का प्रबंध एक दूसरे के सहयोग से होता था। मुझे याद है सभी घरों में एकाध खाट और दरी-चादर-तकिया पर घर के किसी सदस्य का नाम लिखा होता था जिससे वापस पहुंचाने में सुविधा रहे। यहां तक कि भोजन पकाने के बड़े बर्तन भी किसी-किसी के पास (या पंचायती) होते थे जिनका उपयोग काम-काज भी सभी को सुलभ था। दूध-दही भी खरीदी नहीं जाती थी बल्कि जिनके पास भी गाय-भैंस होती वे सब काम-काज के घरों में पहुंचा जाते थे। हर गांव या इलाके में 2-4 लोग भोजन पकाने के विशेषज्ञ होते थे। बहुत से पुरुष आंटा गूंथते थे और स्त्रियां रोटी/पूड़ी बेलतीं। दक्षिण भारत में केले के पत्ते की पत्तल में भोज होता है, हमारे यहां ढाक के पत्तल-दोने और मिट्टी के कटोरे-कुल्हण में पांत में होता था।

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