मैं नास्तिक हूं और मेरी पत्नी बहुत धार्मिक हैं, भगवान के साथ अपने संबंध के अनुष्ठानों में वे मुझे बिल्कुल नहीं शामिल करतीं। प्रसाद जरूर देती हैं। कॉलेज के घर में रहते थे तो कभी कभी फूल तोड़ने में पेड़ की डाली लटकाकर उनकी मदद करता था। घर में एक छोटा कमरा (स्टोररूम) भगवान का घर बन गया था, जिसमें मेरा प्रवेश वर्जित था। अपने भक्त के जरिए व्यक्त भगवान की यह असहनशीलता मैं सहर्ष सहन करता था। मेरे नाम से एलॉट घर में उनके घर के निर्माण में तो मैंने यथासंभव मदद किया था लेकिन बन जाने के बाद उसमें मेरा प्रवेश वर्जित था। पत्नी को लगता था कि मैं बिना नहाए-धोए या बिना जूता-चप्पल उतारे मंदिर में जाकर उसे अपवित्र कर सकता था। हमारे बचपन में गांव में गुड़ बनाने की प्रक्रिया में गन्ना काटने, कोल्हू में पेरने, गुलउर (भट्ठी) में पकाने और भंडारण पात्र में रखने का काम (दलित जाति का) मजदूर करता था। लेकिन उसके बाद वह उसे नहीं छू सकता था। मैं सिगरेट जलाने के लिए लाइटर रखता था क्योंकि माचिस गायब होने का संदेह मुझ पर ही जाता। न उनकी धार्मिकता मेरी नास्तिकता में बाधक है और न मेरी नास्तिकता उनकी धार्मिकता में। दरअसल किसी की धार्मिकता से किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए लेकिन धर्म का राजनैतिक इस्तेमाल यानि धर्मोंमादी राजनैतिक लामबंदी व्यक्ति, समाज, देश और मानवता, सबके लिए खतरनाक है। सांप्रदायिकता धार्मिक विचारधारा नहीं है, धर्मोंमादी लामबंदी की राजैनिक विचारधारा है।
मैंने एक पोस्ट में लिखा कि मैं और मेरी पत्नी एक दूसरे की क्रमशः नास्तिकता और धार्मिकता के प्रति सहनशीलता दिखाते हुए सहअस्तित्व के सिद्धांत का पालन करते हैं। एक सज्जन ने इसे ब्राह्मण कम्युनिस्ट का अवसरवादी प्रवृत्ति कहा और एक अन्य मित्र ने कहा कि जब अपनी पत्नी को नहीं बदल सकता तो बदलाव के लिए औरों को कैसे प्रभावित करूंगा? एक और मित्र ने इसे उच्चजातीय प्रपंचबताया। उस पर --
मेरा विवाह उस उम्र में हो गया था जब मैं ठीक से विवाह का मतलब भी नहीं समझता था, हमारे गांव के सांस्कृतिक परिवेश में बाल विवाह आम प्रचलन था। आधुनिक शिक्षा की पहली पीढ़ी के रूप में हाई स्कूल इंटर की पढ़ाई (1967-71) शहर (जौनपुर जो सांस्कृतिक रूप से 1960-70 के दशक तक गांव का ही विस्तृत संस्करण थ) में करते हुए चेतना का स्तर इतना हो चुका था कि इतनी कम उम्र में विवाह नहीं होना चाहिए तथा इंटर की परीक्षा के बाद घर पहुंचने पर अपनी शादी का कार्ड छपा देखकर विद्रोह का विगुल बजा दिया लेकिन भावनात्मक दबाव के आगे झुक गया और विद्रोह अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। एक बार किसी ने पूछा कि सबके चुनाव की आजादी के अधिकार की बात करता हूं तो क्या शादी भी अपनी मर्जी से किया था? मैंने कहा, शादी तो अपनी मर्जी से नहीं किया था (शादी के समय और उसके 3 साल बाद गवना आनेतक मैंने अपनी पत्नी को देखा ही नहीं था), लेकिन शादी निभाने का फैसला अपनी मर्जी से किया था। यदि यह शादी मेरी मर्जी से नहीं हुई थी तो पत्नी की भी मर्जी से नहीं हुई थी, लड़कियों से तो मर्जी पूछने का सवाल ही नहीं होता था। उस समय हमारे गांवों में लड़कियों के पढ़ने का रिवाज नहीं था। उन्होंने गांव के स्कूल से प्राइमरी तक पढ़ लिया था। लड़कियों की छोड़िए, विश्वविद्यालय पढ़ने जाने वाला अपने गांव का मैं पहला लड़का था। 1982 में 8वीं के बाद अपनी बहन की पढ़ाई के लिए मुझे पूरे खानदान से महाभारत करना पड़ा था तथा अड़कर मैंने उसका राजस्थान में लड़कियों के स्कूल/विवि वनस्थली विद्यापीठ में एडमिसन कराया, वह अलग कहानी है। भूमिका लंबी हो गयी। बाकी बातें अगले कमेंट में। यह कमेंट दो घटनाओं से खत्म करता हूं। पहली घटना 1980-81 के आसपास की है एक संभ्रांत क्रांतिकारी जोएनयू की सहपाठी को मुझसे कुछ राजनैतिक डीलिंग करनी थी। हम दोनों अलग अलग वाम संगठनों में थे। राजनैतिक बातचीत की भावुक भावना के तौर पर उन्होंने कहा कि बाल विवाह के चलते मुझे, आसानी से तलाक मिल सकता था। मेरा माथा ठनका। मैंने पूछा कॉमरेड आपका क्या इंटरेस्ट है? कोई गांव का शादीशुदा लड़का अकेले हॉस्टल में रह रहा हो तो कई लोग शायद यह मानते हो कि वह शादी से छुटकारा चाहता होगा। मैंने कहा था, "If there are two victims of some regressive social custom, one co-victim should not further victimize the more co-victim and in patriarchy the woman is more co-victim." दूसरी घटना मेरे कॉलेज की है। एक सहकर्मी से वैज्ञानिकता और धार्मिकता पर बहस हो रही थी, तर्कहीन होने पर उन्होंने कहा कि वे मेरी कोई बात तब मानेंगे जब मैं अपनी पत्नी को नास्तिक बना दूं। मैंने कहा कि इतने दिनों में जब मैं आपको भूमिहार से इंसान न बना सका जबकि आपतो पीएचडी किए है और इतने सीनियर प्रोफेसर है, मेरी पत्नी तो प्राइमरी तक पढ़ी गांव की स्त्री हैं। बाकी फिऱ।
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