Friday, October 31, 2014

लल्ला पूरण १७५(शिक्षा और ज्ञान ३६)

@Sumant Bhattacharya:  कई बार तुम्हारी पोस्ट के मजमून समझ में नहीं आते, आम आदमी के विवेक को कोसते रहते हो किसी अमूर्त सद्गुण की कमी के लिए. क़ानून लूट को कानूनी अधिकार बनाने का जनता के खिलाफ एक फरेब है; राज्य वर्चस्वशाली वर्ग की संपत्ति की रक्षा आमजन की ताकत से करने के तरकीब है; कानून अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढाने की संहिता है; राज्य शासक वर्गों के हितों की रक्षा का औइजार और आमजन के लिए तटस्थता का धोखा है. क्षमा करना मित्र! कई बार तुम्हारी पोस्ट में २४ साल की पत्रकारिता के अनुभव की परिपक्वता नहीं झलकती. बदलाव छटपटाहट दिखती है लेकिन समस्या की समझ नहीं. सभी को कटघरे में खडा करने से पहले ज़रा सोचो तुमने वोट देने-न-देने के अलावा क़ानून निर्माण में क्या योगदान दिया है?  मैं कहा करता हूँ कि पूंजीवाद दोगली व्यवस्था है, जो कहती है कभी नहीं करती जो करती है कभी नहीं कहती. यह दोगला पण सर्वाधिक इसके राजनैतिक तंत्र में परिलक्षित होता है जो पूंजीतंत्र को जनतंत्र कहता है; जनहित में भूमि अधिग्रहण क़ानून के तहत टाटा-अदानी-अम्बानी-पास्को-...... -भूमाफिया के मुनाफे के लिए किसानों की जमीन कब्जाने में करता है. करछना-कलिंगनगर-सिंगूर-नंदीग्राम नियामगिरि-जगत सिंह पुर के किसान जमें देने से इनकार करता है तो जनहित में राष्ट्र अपने सशस्त्र बलों से जनहित में उनपर कहर बरपाता है. जहां तक महिलाओं के समानता के वागारिक अधिकारों की बात है, वह तो संविधान प्रदत्त है. जरूरत उन्हें सामाजिक मान्यता की है, जो वे खुद लड़ कर लेंगी. जाहिल सिरोमणि मोहन भागवत उद्घोष करते हुए कि महिलाओं को घर में रहना चाहिए और पुरुषों को उनकी रक्षा कानी चाहिए, भूल जाते हैं कि नारी प्रज्ञा और दावेदारी का अश्वमेध रथ इस तरह के वैचारिक तिनकों से नहीं रुकेगा. मैं अपनी छात्राओं से कहता हूँ कि तुम लोग भाग्यशाली हो कि एक पीढी बाद पैदा हुई, लेकिन जिन अधिकारों और आज़ादी का आनंद तुम्हे मिल रहा झी वह पिछली पीढ़ियों के अनवरत संघर्ष का नतीजा है. हक खैरात में नहीं मिलते. हक के एक-एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है. मर्दवादी मर्द उन्हें लक्षमण रेखा खींच कर  सुरक्षा प्रदान करना बंद कर दें महिलायें अपनी सुरक्षा में सक्षम हैं. जनांदोलनों के दबाव और विज्ञान के प्रभाव में जन हित के दिखावे के क़ानून तो बन जाते हैं लेकिन उनमें इतने सकारे छिद्र होते हैं कि पूंजी हित ममें जनहित नेचे टपक जता है. मित्र! क़ानूनी प्रक्रिया में आम आदमी  मरण भागीदारी एक छलावा है. जनपक्षीय बुद्धिजीवियों का कर्ततव्य, मेरी राय में, व्यवस्था के इस दोगलेपन को समझना और पर्दाफ़ाश करना और जनवादी जनचेतना के प्रसार से छात्र-किसान-मजदूरों के आन्दोलनों को मदद करना है.मोदी जी पीठ पर जनता का या बाज़ार का अदृश्य हाथ नहीं अम्बानी का हाथ है. अम्बानी के हाथ को जगह जनता के हाथ से प्रतिस्थापित करने के लिए व्यापक जनांदोलनों की जरूरत है जिसके लिए हालात की वैज्ञानिक समझ और जनवादी जनचेतना आवश्यक है. आइये, देखें इस दिशा में हम अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में शब्दों-कृत्यों से क्या योगदान कर सकते हैं.   

Wednesday, October 29, 2014

पाजेब

आवारगी को आतुर ये पाँव हैं हसीन 
लगता है मगर देखा नहीं कभी जमीन 
तमन्ना है करने की आज़ादी की इबादत 
रोकती है इन्हें मगर पालकी की हिफाज़त 
दौड़ना ऊबड़-खाबड़ में बात है बहुत दूर की  
आदत नहीं है इनको समतलों पर चलने की 
सोचते नहीं ये थहाने को सागर का अतल 
डालता कोइ और इनपर पोखर का जल 
इन हसीं पैरों में बेड़ियों से दिखते ये पाजेब
अलंकार से संज्ञा  की संभावना ये पाजेब 
कर रहे ये पाँव इरादा-ए-आज़ादी का इज़हार 
हो जायेगी अब पाजेब की पकड़ तार-तार 
आवारा शायर का कलम भी है आवारा 
बने-बनाए  रास्ते हैं इसे नहीं गंवारा 
मारना चाहता था पाकीज़ा का डायलाग 
लगा कलम अलापने आवारगी का राग 
(इमि/३०.१०.२०१४)

Tuesday, October 28, 2014

लल्ला पूरण १७५

Sumant Bhattacharya  वही सवाल मैं उठा रहा हूँ, वह महिला क्यों छली गयी? क्यों वह बार बार बलात्कार करवाती रही? मेरा एक अजीज, मुल्क का बड़ा शायर इन्ही मर्दवादी महिलाओं का शिकार हुआ. उसको अपने बॉस के साथ सोने में आनंद नहीं आया तो वह दुबारा-तिबारा क्यों उसके साथ सोने गयी? नौकरी से निकालने पर उसे याद आया कि उसका शोषण हुआ? क्या वह दिमाग से पैदल है? एक प्रोफ़ेसर हैं नौकरी की तलाश के दिनों में उन्होंने अपने गाइड को इतना अधिकार दिया कि वह उसे दूसरों को भी आफर कर सके. उसी की कृपा से परमानेंट होने के बाद्फ़ और उसके यौन  शोषण के किसी और मस्मले के बाद उन्होंने दबे जुबान से अपने शोषण की बात की, मैंने कहा जब आप खुशी ख्गुशी शोषण करवा रही थी तब तो आप ने शिकायत नहीं किया? मैं दुबारा कह रहा हूँ मेरे उन महिलाओं से कोइ सहानुभूत्यी नहीं है जो जिस्म का इस्तेमाल करती हैं और सौदे में घाटा होने पर शोषण की शिक्कायत कसरती हैं.

प्रभाष जोशी हों या भगवान् कोइ सवाल से परे नहीं, प्रभाष जी से मेरे घनिष्ट सम्बन्ध रहे हैं, लेकिन सती प्रथा का समर्थन उनके कैरियर का कलंक है. पहली बात तो सती जैसी अमानवीय, बर्बर प्रथा के महिमामंडन का बनवारी नामक जाहिल मातहत का   लेख छपने नहीं देना चाहिए था, छपने के बाद भारतीय संस्कृति के नाम पर उसका बचाव  प्रभाष जी' का बौद्धिक नीचपना था. हमारे बहिष्कार का क्या प्रभाव पड़ा था  तुम्हे नहीं मालूम क्योंकि तब तुम बच्चे थे पत्रकारिता में या प्रतियोगी परिक्षाओं की निराशा के बाद पत्रकारिता में आशा देख रहे होगे.

निजी तुम हो रहे हो.  तुम्हारे तमाम जैसे प्रिय मित्रों को अप्रिय बात कहने की ढिठाई जरूर करता हूँ. प्रभास जी भगवान नहें थे क्रिकेट के बारे में तो प्रलाप करते थे अंधराष्ट्रवाद की हद तक. और सती का उनका समर्थन जघन्य बौद्धिक अपराध था और उनके पत्रकारिता का कलंक.

मैं मोदी का विश्लेषण नहीं हें कर रहा था, उसका विरोध कर रहा था. क्यों मोदी आया और उसकी पीठ पर अम्बानी का हाथ क्यों है इस पर अब लिख रहा हूँ. विश्लेषण तो इस मुल्क के पढ़े-लिखे जाहिलों का करना है जिन्हें अम्बानी का जरखरीद भगवान दिखता है.

लल्ला पुराण 174( नारी विमर्श 5)

Sumant Bhattacharya भाई सुमंत, काम कुछ और करना था लेकिन लगा कि आपकी बात का जवाब देना जरूरी है. मुझे आपसे या किसी से अपनी नारीवादी प्रतिबद्धता की सनद नहीं  चाहिए. वैसे लाइक बटन दबाने वालों में ५०% महिलायें हैं.मेरी भौतिक सीमाएं हैं हर पोर्टल पर नहीं जा सकता. मेरी किस बात से आपने धतकरम करके सीढियां चढ़ने वाले मर्दो के समर्थन का निष्कर्ष निकाल लिया? तुम्हारी ज्यादातर पोस्ट, मोदियाने की शिकायत के खात्मे के बाद नारियों पर होती हैं, बेटी को बेटा कहकर शाबाशी देने जैसे नारीविरोधी कर्म की तरह अनजाने में नारियों के बारे में मर्दवादी परिप्रेक्ष्य के साथ. मैं बार बार कह चुका हूँ कि मर्दवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहें है, न ही मौत की अवश्यसम्भाविता जैसा कोइ साश्वत विचार. मर्दवाद विचार नहीं एक विचारधारा  है जो हम अपने रोजमर्रा की ज़िंदगी की प्रक्रिया में निर्मित-पुनर्निर्मित, पोषित करते हैं और जिसे नारीवादी अपने नित्य कृत्यों- कर्मों और प्रतिविचार्धारा-नारीवाद- से खंडित करते हैं और एक मानवतवादी समतामूलक मूल्य की हिमायत. वर्चस्व विचारधारा से निर्मित होता है.  विचारधारा एक मिथ्याचेतना है जो पीड़ित को भी उतना ही प्रभावित करती  है जितना उत्पीड़क को.  मर्दवादी सिर्फ पुरुष ही नहीं होते जो नारी देह को उत्तेजक पदार्थ मानते हैं, मर्दवादी विचारधारा से मुक्ति से वंचित महिलायें भी. कोर्ट में ऐसे मामले पढने को मिलते हैं कोइ किसी का ३ साल बलात्कार करता रहा. सेक्स स्वस्फूर्त पारस्परिक प्रक्रिया है, पारस्परिकता के विरुद्ध कोइ भी सम्बन्ध बलात्कार है, पत्नी का भी. विचारधारा मिथ्या चेतना इस लिए है कि यह एक ख़ास मूल्य को सार्वभौमिक, स्वाभाविक और अंतरिम सत्य के रूप में पेश करती है. वर्चस्व का ही प्रभाव है कि ज्यादातर महिला प्रोफ़ेसर स्वेच्छा से डबल रोल करती हैं. हम बचपन से कुछ सामाजिक मूल्यों को अंतिम सत्य की तरह आत्मसात कर लेते हैं कि आजीवन उसी कैद में पड़े रहते हैं. निकलने के लिए साहस और जज्बा चाहिए, झेलने और लड़ने की ताकत चाहिए. वैचारिक वर्चस्व का का ही असर है कि यूजीसी ने एक घोर नारीविरोधी प्रावधान बनाया कि महिलाओं को सेवाकाल  में कभी भी मातृत्व अवकाश मिल सकता है क्योंकि बच्चे को कभी भी विशेष देखभाल की जरूरत पड़ सकती है, सब महिलाओं ने स्वागत किया. और भी लिखने को है लेकिन फिर कभी. मर्दवादी होने के लिए पुरुष होना उसी तरह जरूरी नहेीं  है जैसे नारीवादी  होने के लिए नारी होना.

Monday, October 27, 2014

इतिहास की प्रतिध्वनि

इतिहास की प्रतिध्वनि
इलिहास कभी अपने को दुहराता नहीं, प्रतिध्वनित होता है और प्रतिध्वनियाँ कई बार भयानक लगती हैं. नेहरू के समय इंदिरा गांधी संविधानेतर सत्ता के केंद्र के रूप में उभर रही थी. कहते हैं कि उन्ही की इच्छा से केरल के वामपंथी सरकार गिराई गयी थी. वे उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थीं.यह बात उछली तो लेकिन  "राष्ट्र-निर्माण" के शुरुआती दिनों में नेहरू के कद के चलते बहुत ऊपर तक नहीं गयी.  इंदिरा गांधी जब गरीबी हटाओ के मंत्र से प्रधानमंत्री और गरीबों को हटाने लगीं तो उनका लम्पट बेटा, संजय गांधी युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बाद में बना और संविधानेतर सत्ता का केंद्र पहले. सारे भ्रष्ट आला अफसर और कांग्रेसी मंत्री-संतरी, नट-भट उसका दरबार करने लगे. उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री की हेलीकाप्टर पर चढते हुए संजय गांधी को चप्पल पहनाते हुए छपी तस्वीरों ने इस नारे को जन्म दिया था, "न नर है न नारी है, संजय की सवारी है, नारायण दत्त तिवारी है". संजय ने एक कबाड़ी के कारोबारी धीरू भाई अम्बानी की पीठ पर हाथ रखा तो वह कबाडीपति से अरबपति बन गया. लेकिन इंदिरा गांधी की तो छोडिये, संजय की पीठ पर भी हाथ रखने की किसी थैलीशाह की औकात नहीं थी. एक ही पीढी में इतना परिवर्तन हुआ कि उसके बेटे का हाथ सत्ता संवैधानिक सता की पीठ पर पहुँच गया. संजय की मौत के बाद, समानांतर सत्ता का यह केंद्र कुछ दिन खाली रहा. अराजनीतिक स्वभाव के चलते राजीव गांधी यह पद नहीं भर पाए मगर इंदिरा गांधी की मौत के बाद सीधे संवैधानिक केंद्र में पहुँच गए और संजय ब्रिगेड के ज्यादातर सदस्य उनके दरबारी. संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी की उम्मीदवारी इंदिराजी को नागवार लगी और घर से निकाल दिया. वह अंततः संघम् शरणम् चली गयी. राजीव गांधी के दरबारियों के अलावा शायद संविधानेतर सत्ता का केंद्र शायद खाली  रहा. विश्वनाथ प्रताप के संक्षिप्त शासनकाल में आडवाणी के नेतृत्व में हिंदुत्व संविधानेतर केंद्र के रूप में उभरा जिसने कमंडल से मंडल को ध्वस्त करने के रथ यात्रा से मंडलवादी सरकार को ही ध्वस्त कर दिया. नरसिंह राव और मनमोहन सरकारों का संविधानेतर केंद्र-- ११ जनपथ--जग जाहिर है.तमाम संविधानेतर केन्द्रों के चलते देवेगौडा-गुजराल की सरकारें अतिअल्पजीवी रहीं. अटल बिहारी के शासनकाल में संविधानेतर सत्ता का यह केंद्र नागपुर चला गया लेकिन लुके-छिपे.राजधर्म की दुहाई देते हुए गुजरात नरसंहार को इतिहास पर कलंक मानते हुए गुजरात सरकार को बर्खास्त या निंदा करने  करने की अटल बिहारी की खाहिश पर नागपुरी वीटो लग गया. और अटलबिहारी को जनसंहार और बलात्कार को आपद्धर्म बताना पडा. मोदीजी के राज में, सत्ता का यह संविधानेतर केंद्र संजय शैली में खुल कर सामने आगया है. भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोपों से घिरे दिल्ली विवि के कुलपत या एम्स के निदेशक राष्ट्रपति के दरबार नहीं, भागवत दर्शन करने लगे हैं.
 एडम स्मिथ मुनाफ़ा कमाने की गतिविधियों के उपपरिणाम के रूप में इतिहास की व्याख्या करते हुए जानबूझ कर समन्वयक शक्ति को सरकार न कह कर "बाज़ार का अदृश्य हाथ" कहते हैं. कार्ल मार्क्स अदृश्य हाथों का रहस्योद्घाटन करते हुए, राज्य मशीनरी को पूंजीपति वर्ग के सामान्य हितों  (general interests) का कार्यकारी दल बताया. लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था अपने अन्तर्निहित दोगले चरित्र के चलते राज्य को एक निष्पक्ष इकाई घोषित करती है इसलिए शासक सार्वजनिक मंचों पर पूंजीपतियों के कारिदा दिखने से बचता है, खासकर उदारवादी जनतंत्र में, जहाँ सककार जनता के संसाधनों से पूंजीवाद की सेवा करती है लेकिन दावा जनता की सेवा का करती है. यह अदृश्य हाथ आज साफ़ दिखता है, टाटा को किसानों की जमीन पर कब्जा दिलाने के लिए, आन्दोलनकारी किसानों पर गोलीबारी करके 16 आदिवासी किसानों की ह्त्या बाज़ार के अदृश्य हाथ नहीं, उड़ीसा सरकार करती है. बहुराष्ट्रीय कंपनी पास्को किसानों की जमीन पर काबिज करने के लिए पान के भीटों से समृद्ध जगतसिंहपुर के किसानों को बाज़ार के अदृश्य हाथ नहीं, भारत सरकार उजाड़ रही है. जनता (किसान मजदूर) को और भी दयनीय बना कर भूमंडलीय पूंजी की सेवा के लिए, जनविरोधी नीतियों का प्रस्ताव बाज़ार के अदृश्य हाथ का नहीं बल्कि विशाल बहुमत से सत्तासीन विकास पुरुष मोड सरकार का है. क्षमा कीजिएगा, कलम, संविधानेतर सत्ता और पीठ पर हाथ से अदृश्य हाथ की तरफ बहक गया. मोदी जी ने समीकरण बदल दिया, मुनाफाखोर की पीठ पर सत्ता के हाथ की बजाय मुनाफखोए का हाथ सत्ता की पीठ पर पहुंचा दिया. इस तरह की ईमानदारी का एक ही और उदाहरण है, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, जिन्होंने गर्व से कोयला माफिया सूरजदेव सिंह से अपनी मित्रता का सार्वजनिक इज़हार किया था. मोदी की पीठ पर अम्बानी के और हाथ में श्रीमती अम्बानी के हाथ का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्त्व नहीं है.  इतिहास कभी खुद को दुहराता नहीं, प्रतिध्वनित होता है, भयावह है मौजूदा प्रतिध्वनि.
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७


Saturday, October 25, 2014

अानंद की परिभाषा

विवादित है अानंद की परिभाषा
किसी को मिलता परोपकार मे
तो किसी को परसंताप में
होता है कोई पुलकित अावाम पे कहर ढाकर
तो कोई घाव पर मरहम लगाकर
मिलता है किसी को सुख माल-पूअा खाकर
तो किसी को ज़ंग-ए-अाज़ादी के नारे लगाकर
अानंदित होते कुछ लोग अंधेरे में दिये जलाकर
तो कुछ मिटाते अंधेरा गरीब का घर जलाकर
अाह्लादित होता है कोई ईमानदारी के गुरूर में
तो कोई हरामखोरी के शुरूर में
सुखी होता है कोई कार्य की संपूर्णता में
 तो कोई कामचोरी की निपुणता में
देखते कुछ लोग अच्छे दिन मुल्क नीलामी में
तो कुछ साम्राज्यवाद की बर्बादी में
यथार्थ की ही तरह द्वंद्वात्मक भाव है अानंद की परिभाषा में
ढूंढता हूं मैं कथनी-करनी की द्वंद्वात्मक एकता में.
 (हा हा यह भी कविता हो गयी. सौजन्य- शैलेंद्र)
(ईमिः26.10.2014)

बेहतर है मिलना रख कर दरमियान

बेहतर है मिलना रख कर दरमियान थोड़ा
ख़लूश को बदनीयती समझ लेता है संस्कारी जन
बेहतर है खत-ओ-किताब़त का रिश्ता
अब मुखातिब-मुलाकात का करता नहीं मन
बेहतर है खुद चुनना अरण्य पथ
वानप्रस्थ हो ग़र समाज का क़ायदा
नियति हो ग़र वनवास
 बेहतर है जंगल को उपवन मान लेना
ग़फलत हो ग़र अपनों को
बेहतर है एकाकीपन को एकांत बना लेना
परिस्थिति हो गर प्रतिकूल
बेहतर है उसे बदले भेष में बरदान मान लेना
ग़र पद्य बन जाये गद्य में कमेंट की कोशिस
बेहर है कलम की अाज़ादी का सम्मान करना. 
(हा हा यह भी कविता सी हो गयी, शुक्रिया पुष्पा -- ईश)
(ईमिः 24.10.2014)

Friday, October 24, 2014

जंगल में मंगल


फेस्बुक पर एक करने में एक कविता बन गयी थी पर येन-केन प्रकारेण गायब हो गयी, पूरी कोशिस से वही नहीं लिख पाया, यह लिा गया.

जंगल में मंगल
हमको आता है जंगल में भी मंगल का हुनर
होता अरण्यपथ का नहीं कोई भी हमसफर
हो गऱ साथ से अपनों को गफलत
एकाकीपन को एकांत बना लेते हम
होते हैं एकांत में ख़याल नये प्रियतम
ख़यालों से आशिकी का मजा लाजवाब
बुनतें है एक सुंदर दुनियां का ख़ाब
करेंगे बेपर्दा वैचारिक वर्चस्व का राज
भार से जिसके तड़प रहा सारा समाज
करेंगे खड़ा वैकल्पिक वैचारिक वर्चस्व
मेहनतकश का ही है दुनियां का सर्वस्व
बताना है मेहनतकश की मुफलिशी का मूल
समझता है जिसको वह कुदरत की भूल
समझेगा जब यह दुनियां का किसान-मजदूर
जीतोड़ मेहनत से मिलता नहीं क्यों भोजन भी भरपूर 
दो धेले का भी काम करता नहीं परजीवी ठेकेदार
तोंद फुलाकर शूट-बूट में बना हुआ है उनका सरदार
होगी किसान-मजदूरों की तब इंक़िलाबी लामबंदी
टूट जायेगी देश-काल की सारी-की-सारी हदबंदी
बनेगा जनवाद तब वैकल्पिक नयी युगचेतना
खत्म होगी धरती से तब शोषण दमन की वेदना
स्थापित होगा समाज सें वैकल्पिक वर्चस्व नया
हरामखोर ठेकेदारों पर भी करेगा सर्वहारा दया
मगर करना पड़ेगा उसे भी उत्पादक काम
मिलेगा उसको भी काम का बराबर दाम
ज़ाहिर है पुरजोर विरोध करेगा वह बेशक
लूट के कुकर्म समझता आया है कुदरती हक़
पलटने को नया निज़ाम मचायेगा शोर 
दबा देगा जिसे किसान-मजदूर का संगठित जोर
दफ्न हो जायेगी तब हर किस्म की गैरबराबरी
सारी कायनात होगी एक आज़ाद इंसानी बिरादरी
खत्म होंगे लूट-पाट और अत्याचार के कारोबार
सारा जहां मनायेगा मानवता की मुक्ति का त्योहार
होंगे सभी के साझे सामाजिक सरोकार
हो जायेगा इतिहास इंसानियत से सरोबार
(ईमि/25.10.2012)





Thursday, October 23, 2014

सभ्यता करती है संचार दोगलेपन का

सभ्यता करती है संचार दोगलेपन का
छिपाता है इंसान मर्म अपने मन का
करता कोशिस  होने से अलग दिखने का
और स्वरुप से सार को  ढकने का
सबसे साफ़ दिखता दोगलापन उन रिश्तों में
गिनते जो खुद को फरिश्तों में
एक ही छत के नीचे रहते बच्चे और माँ-बाप
करते  नहीं एक-दूजे से कभी भी मन के बात
करते प्रेमी युगल अंतरंगता की बात
लगाते एक दूजे की निजता पर घात
डालने को एक दूजे पर व्यक्तित्व का असर
होने से अलग दिखने में छोड़ते नहीं कोई कसर
ऐसे लोग खुद को सभी में ढूंढते हैं
सफ़ेद दाढ़ी  को मेकअप समझते हैं
होते है ये लोग वहम-ओ-गुमाँ के शिकार
ख़त्म नहीं करते अन्तर्विरोधों का विकार
शायर को है खुदी से इतना अधिक प्यार
होने से अलग दिखने का आता नहीं विचार
मार्क्सवादी की कथनी-करनी में होता नहीं फर्क
करता है वह वही कहता जो उसका तर्क
(इमि/२३.१०.२०१४)

दीवाली की बधाइयां

दीवाली की बधाइयां अनेक 
तुम हो मेरे लिए लाखों में एक 
हरने को अमावस्या का तिमिर
लगाओ प्रज्वलित दीपकों का शिविर
डालो दियली में तेल अमन-चैन का 
आओ मनाएं त्यौहार मेल जोल का
बढ़ो आगे लिए जनवाद के मशाल 
जला दो पूजी का मोहक मायाजाल 
बुलंद करो ज्योति के रोशन जज्बात 
राख हो फिरकापरस्ती-ओ-जात-पांत
करो समाजभंजकों का बहुत बुरा हाल  
करके शानदार साझी वरासत बहाल 
आओ करें दियली-बाती का ऐसा कमाल 
चारों दिशाएँ हो जाएँ रोशनी से लाल लाल 
दीपावली की अनेकों शुभकामनाएं 
समानता स्वतंत्रता का रास्ता अपनाएं
(इमि/२३.१०.२०१४)

Tuesday, October 21, 2014

क्षणिकाएं ३६ (५७१-८०)

571
हम तो हैं प्रामाणिक नास्तिक आवारा
दौड़ मस्जिद-मंदिर की नहीं है गवारा
सहम जाती है मूल्ले-पण्डे की तंग नज़र
देख हम अजम-ए-जूनूं वालों की की डगर
हम घूमते नहीं गायब कोल्हू बैल की तरह
उड़ते हैं गगन में आज़ाद परिंदों की तरह
इरादे है बुलंद अपने आसमां से आगे
बाँध नहीं सकते उन्हें जज़्बात के धागे
अरमानों का  है हमारा  आकाश अनन्त
जज्बातों का है न कोइ आदि-न-अंत
(इमि/१७.१०.२०१४)
५७२
होती हैं इश्क की कई कोटियाँ
अपना तो इश्क अजीब था
उपहारों की बात ही छोड़ो
हाँ, उपहार सिनेमा करीब था
करते थे आशिकी बेबाक
अरावली की पहाड़ियों में
कीकड़-बबूल की झाड़ियों में
खाते थे तोड़कर जंगली बेर
 करते थे सूखी झील की सैर
घूमते घंटों पहाडी पगडंडियों पर
प्यार की बातें  चलतीं रात भर
भोर में पहुंचते काशीराम के ढाबे पर 
सुबह की चाय में रात की बात का असर
विचार हों जब प्यार का आधार
संपन्न रहता है यादों का संसार
(इमि/१७.१०.२०१४)
५७३
ज़िंदगी एक सफ़र है अपनों के मिलने विछडने का
नए नए अपनों का पुरानी यादों  और सपनों का
जब भी कभी हो जाता सफ़र नितांत एकांत 
अतीत का कोइ टुकड़ा बन जाता है दृष्टांत
तन्हाई तो है वरदान प्रतिकूलता के भेष में
घूमता है दिल-ओ-दिमाग विचारों के देश में
(इमि/१७.१०.२०१४)
५७४
करते हैं लोग प्यार का  व्यापार
दिल नहीं होता दिमाग से बेज़ार
(इमि/17.१०.२०१४)
५७५
जेल जाते रहे हैं सुकरात 
इरोम शर्मीला की भी वही जात 
कटते रहे हैं एकलव्यों के अंगूठे 
होते रहे हैं सम्मानित द्रोणाचार्य 
होता आया है यही तबसे 
जब से बंट कर छोटे-बड़े में सभ्य हुआ समाज 
उगने लगे धरती पर राजा और ताज 
करने लगे बड़े छोटों पर शासन 
निहितार्थ बन गए कानूनी अनुशासन 
होता वही है इन्साफ का चरित्र 
बनाता है शासन जैसा उसका चित्र 
जैसा होता है राजा वैसा ही उसका काजी 
गैलेलियो को दे देता है ज़िन्दगी से आज़ादी 
वह भी काजी ही था बैठा इन्साफ के मंच पर 
भेजा था जिसने भगत सिंह को फांसी के तख्ते पर 
जब तक है जारी लूट पर टिका निज़ाम-ए-ज़र 
क़त्ल-ए-इन्साफ ही रहेगी काजियों की डगर 
मिलाती रहेगी अम्माओं-शाहों को जमानत 
और साईंबाबाओं-शर्मीलाओं को जेल की लानत 
उम्मीद है एक-न-एक दिन एकलव्य करेगा अंगूठा देने से इनकार 
होगी  तब जेल को ज़ालिम की दरकार
(इमि/१९.१०.२०१४)
576
\फैला रहे हैं मोदीजी राजनैतिक दुर्गन्ध 
इसीलिये काले धन पर बोलती उनकी बंद 
है हिन्दू धर्म में बाप का नाम लेना पाप 
मोदीजी क्यों लेंगे ऐसा अभिशाप 
बोलती उनकी बंद नहीं महज कालेधन पर 
साम्राज्यवादी ताला लगा है उनकी जबान पर 
होगा राज भूमंडलीय पूंजी का 
बढ़ेंगे देश में बेरोजगार 
संघी तोते करेंगे तब भी मोदी की जयकार 
मोदी की जयकार मचेगा देश में हाहाकार 
मचेगा देश में हाहाकार हो जाएगा आवाम लाचार 
तभी उठेगी शमशान से भूखे-नंगों की ललकार 
मचेगा तब पूंजी के खेमे में हाहाकार 
बता दिया इतिहास ने हिटलर-ओ-हलाकू की औकात 
नहीं टिकेगी ज्यादा दिन बजरंगी लूट की विसात 
(ईमि/१८..१०.२०१४)
577
क्या रवानी है कलम की तुम्हारे
तार कर देता है नारी संस्कार सारे
मर्दवाद को देता अनवरत सांस्कृतिक संत्रास
नारीत्व के सद्गुणों से उठता उसका विश्वास
सारे सभ्य समाजों में नारी रही है पतिव्रता
दूषित करता कलम तुम्हारा परंपरा की पवित्रता
चला रहा पत्नी-पतनशीलता का कुत्सित  अभियान
लेगा ही ऊपरवाला इन पापों का संज्ञान
सहनशील है अपना समाज नारी सा ही
होती हद मगर पतनशीलता की भी
भरेगा घड़ा जब कलम के पाप का
पतनशील पत्नीत्व के अभिशाप का
होगी तब जंग अार-पार की
निर्णायक जीत-हार की
जीतता है ग़र कलम तुम्हारा
उलट जायेगा सद्गुण का समीकरण सारा
टूटेंगे पूर्वजों सारे पवित्र संस्कार
बढ़ेगा समाज में नारीवादी विकार
होगा पतनशील पत्नीत्व का पतिव्रतत्व पर राज
खाक में मिल जायेगा हमारा सभ्य समाज
(ईमिः20.10.2014)
578
हंसी उडाना खुद की है साहस का काम 
भले ही करें लोग कह दुस्साहसी बदनाम 
करते जो लोग काम होता जो अपेक्षित 
सद्गुणी कह लोग करते उन्हें उपेक्षित 
उसूल-ए-हराम हो जब रईसी की बुनियाद 
ईमान बन जाता है परिहास की बात  
मगर सत्ता को आतंकित करता ईमान
आतंकवाद देती उसको वो नाम 
लिखने बैठा था कविता आत्म-परिहास पर 
खिसक गया कलम ईमान के आतंक पर 
बने हों आतंकवाद पर जहां ढेरों कानून 
खतरनाक होता है ईमानदारी का जूनून 
(इमि/२१.१०.२०१४)
579
अफवाहों से लगाए जाते हैं इलज़ाम 
पूर्वाग्रहों को देते लोग ज्ञान का नाम
(इमि/21.10.2014)
570
सुबह सुबह अदम की याद आ गयी:

यह आख़िरी मुलाक़ात थी अदम गोंडवी के साथ 
चमारों की गली पढ़कर रो पड़े थे श्रोताओं के साथ 
थी अदम की जोर-ज़ुल्म से अदावत 
कहते थे जनता से करने को बगावत 
देखता हूँ रहनुमाओं की खुद्सरी का शगल 
याद आती है तब अदम गोंडवी की ग़ज़ल 
जब भी देखता हूँ उबलते मजहबी जज्बात 
याद आती है गरीबी से जंग की उनकी बात 
जब भी होता है जुबां पर ताले का खतरा 
याद आता है जेहन की अनंत उड़ान का मिसरा
देख पैसे से उठती-गिरती सरकारों का सिलसिला 
उठता हैं जनता के हथियार  के हक का मामला  
होगा आदम की बातों का असर जरूर 
फैलेगा  ही आवाम में इन्किलाबी शुरूर 
करता है ईश आपको सलाम मान्यवर 
बख्सते इज्ज़त जिसे आदरणीय कहकर
(इमि/२२.१०.२०१४)


अदम की याद

सुबह सुबह अदम की याद आ गयी:

यह आख़िरी मुलाक़ात थी अदम गोंडवी के साथ
चमारों की गली पढ़कर रो पड़े थे श्रोताओं के साथ
थी अदम की जोर-ज़ुल्म से अदावत
कहते थे जनता से करने को बगावत
देखता हूँ रहनुमाओं की खुद्सरी का शगल
याद आती है तब अदम गोंडवी की ग़ज़ल
जब भी देखता हूँ उबलते मजहबी जज्बात
याद आती है गरीबी से जंग की उनकी बात
जब भी होता है जुबां पर ताले का खतरा
याद आता है जेहन की अनंत उड़ान का मिसरा
देख पैसे से उठती-गिरती सरकारों का सिलसिला
उठता हैं जनता के हथियार  के हक का मामला
होगा आदम की बातों का असर जरूर
फैलेगा  ही आवाम में इन्किलाबी शुरूर
करता है ईश आपको सलाम मान्यवर
बख्सते इज्ज़त जिसे आदरणीय कहकर
(इमि/२२.१०.२०१४)

Monday, October 20, 2014

अफवाहों से लगाए जाते हैं इलज़ाम

अफवाहों से लगाए जाते हैं इलज़ाम 
पूर्वाग्रहों देते लोग ज्ञान का नाम
(इमि/21.10.2014)

हंसी उडाना खुद की

हंसी उडाना खुद की है साहस का काम 
भले ही करें लोग कह दुस्साहसी बदनाम 
करते जो लोग काम होता जो अपेक्षित 
सद्गुणी कह लोग करते उन्हें उपेक्षित 
उसूल-ए-हराम हो जब रईसी की बुनियाद 
ईमान बन जाता है परिहास की बात  
मगर सत्ता को आतंकित करता ईमान
आतंकवाद देती उसको वो नाम 
लिखने बैठा था कविता आत्म-परिहास पर 
खिसक गया कलम ईमान के आतंक पर 
बने हों आतंकवाद पर जहां ढेरों कानून 
खतरनाक होता है ईमानदारी का जूनून 
(इमि/२१.१०.२०१४)

Sunday, October 19, 2014

पतनशील पत्नी का कलम

क्या रवानी है कलम की तुम्हारे
तार कर देता है नारी संस्कार सारे
मर्दवाद को देता अनवरत सांस्कृतिक संत्रास
नारीत्व के सद्गुणों से उठता उसका विश्वास
सारे सभ्य समाजों में नारी रही है पतिव्रता
दूषित करता कलम तुम्हारा परंपरा की पवित्रता
चला रहा पत्नी-पतनशीलता का कुत्सित  अभियान
लेगा ही ऊपरवाला इन पापों का संज्ञान
सहनशील है अपना समाज नारी सा ही
होती हद मगर पतनशीलता की भी
भरेगा घड़ा जब कलम के पाप का
पतनशील पत्नीत्व के अभिशाप का
होगी तब जंग अार-पार की
निर्णायक जीत-हार की
जीतता है ग़र कलम तुम्हारा
उलट जायेगा सद्गुण का समीकरण सारा
टूटेंगे पूर्वजों सारे पवित्र संस्कार
बढ़ेगा समाज में नारीवादी विकार
होगा पतनशील पत्नीत्व का पतिव्रतत्व पर राज
खाक में मिल जायेगा हमारा सभ्य समाज
(ईमिः20.10.2014)

शिक्षा और ज्ञान ३५

Nishant Kumar मेरे युवा मित्र! आप मोदी समर्थक इसलिए हैं कि भावनाओं (दिल) से सोचते हैं,. विवेक (दिमाग) से नहीं. विवेक हे मनुष्य को पशुकुल से अलग करता है और दिमाग का इस्तेमाल बंद कर मनुष्य पशुवत हो जाता है. मैं सारे मोदी-भक्तों से एक ही सवाल पूछता हूँ, आप अपने इस महानायक, नफ़रत के सौदागरों के इस मुखिया की एक बात-- कम या वाक्य-- बता दें, सांप्रदायिक हिंसा और नफ़रत की सीढी  से सत्ता की ऊंचाई तक चढ़ने वाले अपने आराध्य का एक सद्गुण बता दें जिससे आप उसके भक्त हो गए तो मैं भी आपकी भाषा बोलने लगूंगा. हम भूखे-नंगों के बारे में ही चिंतित रहते हैं इसीलिये इस  दुर्दशा के मुख्य अपराधी कार्पोरेटी भूमंडलीय पूंजी और मनमोहन-मोदी जैसे उसके चाकरों के खिलाफ लिखते है. मित्र! आपने गरीबी और भूख के बारे में सुना-पढ़ा(जिसकी कम संभावनाएं हैं क्योंकि संघी पढने-लिखने में यकीन नहीं करते) होगा, मैंने भूख और गरीबी जिया है और फक्र से उन दिनों को याद करता हूँ. कोइ भी बालक भूखा न रहे इसके लिए जरूरी है की आप संसाधनों से संपन्न इस धरती पर गरीबी-भुखमरी-बेरोजगारी-गैराबराबरी के अन्तःसंबंधों और साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी का राजनैतिक अर्थशास्त्र समझें. जब तक रोग का मूल न मालूम हो तो इलाज़ कैसे करेंगे. अगर आप गरीबी-बेरोजगारी-भुखमरी-गैर बराबरी के कारणों को नहें समझेंगे तो गलत इलाज़ से रोग बढाते जायेंगे. देशों में दुर्दशा का कारण भूमंडलीय लूट है और आप लुटेरे के एक सेनापति से लूट बंद करवाने की खुशफहमी पालते हैं. आपके नसीहत, "अगर आप मोदी, कांग्रेस या अन्य पार्टी पर उंगली उठा रहे हैं तो राजनीति में आयें, हम आप के साथ हैं", सर आँखों पर. लेकिन आपके विचारों या आपको "यंग जनरेसन" का प्रतिनिधि मान लेना उतनी ही भयंकर भूल होगी जितनी आप का मोदीजी को आराध्य मान लेना. मित्र! यह भी आपकी नासमझी  मैं राजनीती में नहीं हूँ. मित्र मैं तो पिछले ४ दशक से अधिक समय से राजनीति में हूँ संही शुरुआत के साथ. हाँ सत्ता और लूट खसोट की नहीं दुनिया बदलने की राजनीति.  इसी लिए आप जैसे युवकों के साथ सर खपाता हूँ कि कुछ को पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों मुक्ति दिला सकूं और विवेकशील इंसान बनाने में मदद कर सकूं; जिससे क्रांतिकारी संभावनाएं हकीकत बन सकें, जिससे वे सुन्दर सपने देखें. सस्नेह.  .


जेल जाते रहे हैं सुकरात

जेल जाते रहे हैं सुकरात 
इरोम शर्मीला की भी वही जात 
कटते रहे हैं एकलव्यों के अंगूठे 
होते रहे हैं सम्मानित द्रोणाचार्य 
होता आया है यही तबसे 
जब से बंट कर छोटे-बड़े में सभ्य हुआ समाज 
उगने लगे धरती पर राजा और ताज 
करने लगे बड़े छोटों पर शासन 
निहितार्थ बन गए कानूनी अनुशासन 
होता वही है इन्साफ का चरित्र 
बनाता है शासन जैसा उसका चित्र 
जैसा होता है राजा वैसा ही उसका काजी 
गैलेलियो को दे देता है ज़िन्दगी से आज़ादी 
वह भी काजी ही था बैठा इन्साफ के मंच पर 
भेजा था जिसने भगत सिंह को फांसी के तख्ते पर 
जब तक है जारी लूट पर टिका निज़ाम-ए-ज़र 
क़त्ल-ए-इन्साफ ही रहेगी काजियों की डगर 
मिलाती रहेगी अम्माओं-शाहों को जमानत 
और साईंबाबाओं-शर्मीलाओं को जेल की लानत 
उम्मीद है एक-न-एक दिन एकलव्य करेगा अंगूठा देने से इनकार 
होगी  तब जेल को ज़ालिम की दरकार
(इमि/१९.१०.२०१४)

Saturday, October 18, 2014

मोदी विमर्श ३६

सच कह रहे हो मोदी-भक्तों  संघी सोचता नहीं करता है अगर सोचता तो मुल्क में विध्वंशक हरकतों से फिरकापरस्ती का जहर न फैलाता.  क्योंकि शाखा में सोचना नहीं तोते की तरह रटना और भेंड की तरह अनुशरण सिखाया जता है. और सुनो बजरंगी भक्तों! मेरा कलम तुम्हारा या तुम्हारे मोदी भगवान का गुलाम नहें है. जितना करोगे कोशिस तोड़ने का कलम, उतनी बुलंद होगी आवाज़.

यह कुछ क्या होता है, स्पष्ट बताइये क्या अच्छा काम किया है मुल्क को गिरवी रखने के लिए प्रो-कारपोरेट नीतियों के अलावा. ६० दिन में कला धन वापस ला रहा था लेकिन जिनने उसे प्रधानमंत्री बनाया उनका नाम कैसे ले. वैसे तो ५ साल चलेगी नहीं यह सरकार. अपने ही भार से दब जायेगी, चल गए तो मुल्क बेहाल हो जाएगा. आलोचना तो बनकर में आत्महत्या करने वाले, गोलवलकर के आदर्श हिटलर जैसे नरपिशाच की भी करते है, उसने भी मोदी जी की तरह हजारों लोगों का क़त्ल-ए-आम कराया था.

मोदी प्रधान मंत्री हैं होना चाहिए या नहीं पर बहस अप्रासंगिक है. आरआर यसयस साम्प्रादायिक धर्मोन्माद पर आधारित एक फासिस्ट संगठन है. मैंने राजनीति के शुरुआत संघी पाठशाला से किया और विद्यार्थी परिषद् का नेता रहा हूँ. कितना सरकारी गैरसरकारी फंड भूचाल की विपदा में संघी यनजीओ में गए. इसलिए संघ के चरित्र के बारे में मुझे न बताएं नहीं तो अरुण जेटली या मुरली मनोहर जोशी जी से पूछ लें.मैं आप से भी वही सवाल पूछ यरह हूँ जो बाकी मोदी भक्तों से पूछता हूँ आप मोदी जी का नाफरत फैलाने  और लाफ्फाजी करने या अडानी-अम्बानी को गुजरात लुटाने के अलावा अपने आराध्य का एक वाक्य या वाकया उद्धृत करें जिससे वह आपको विश्व-उद्धारक लगता है?

फासिस्ट हस्मेशा उन्मादी जन समर्थन से ही सत्ता पाते हैं और आप पर और समय नशीं खर्च करना. बाय. जो बातें मैं कहता हूँ उसपर टिप्पणी करना ह्पो तो बोलेन वरना विदा लें. संघी केवल निजी आक्षेप की भाषा जनता है. मोड ६० दिन में कालाधन वापस ला रहा था अब कह रहां है की काले धन के नाम बताने से देश खतरे में पद जाएगा, यह थूक कर चाटना हुआ. कैसे नाम बताएँगे?

Narendra Kumar Singh Sengar हिटलर पर भी किसी अफ्दालत ने कोइ आरोप नहीं साबित किया. आप श्रम नीतियों के प्रस्ताव और साम्प्राज्य्वादी फालतू पूंजी को प[अनाह देने वाली नीतियाँ क्या करती हैं, जो जितने दंगे करवाता है मोदी उसको उतना ही पारिश्रमिक देते हैं. साबित नहीं हुआ तो इनके मुख्यमंत्रित्व में ह्जफ्य्तों कुहराम मचा रहा तो ये तो बहुत नाकारा नेता हुए. आप एक सद्गुण बता दें इससे मोदी जे आपके आराध्य हो गए? ईमानदारी से बताइये गुजरात सरकार इतने कत्ल-ए-आम, लूट और बलात्कार न प्रायोजित करती तो क्या मोदी जी चुनाव जीत पाते?

Friday, October 17, 2014

काले धन पर बोलती उनकी बंद

फैला रहे हैं मोदीजी राजनैतिक दुर्गन्ध 
इसीलिये काले धन पर बोलती उनकी बंद 
है हिन्दू धर्म में बाप का नाम लेना पाप 
मोदीजी क्यों लेंगे ऐसा अभिशाप 
बोलती उनकी बंद नहीं महज कालेधन पर 
साम्राज्यवादी ताला लगा है उनकी जबान पर 
होगा राज भूमंडलीय पूंजी का 
बढ़ेंगे देश में बेरोजगार 
संघी तोते करेंगे तब भी मोदी की जयकार 
मोदी की जयकार मचेगा देश में हाहाकार 
मचेगा देश में हाहाकार हो जाएगा आवाम लाचार 
तभी उठेगी शमशान से भूखे-नंगों की ललकार 
मचेगा तब पूंजी के खेमे में हाहाकार 
बता दिया इतिहास ने हिटलर-ओ-हलाकू की औकात 
नहीं टिकेगी ज्यादा दिन बजरंगी लूट की विसात 
(ईमि/१८..१०.२०१४)

प्यार का व्यापार

करते हैं लोग प्यार का  व्यापार
दिल नहीं होता दिमाग से बेज़ार
(इमि/17.१०.२०१४)

ज़िंदगी एक सफ़र है

ज़िंदगी एक सफ़र है अपनों के मिलने विछडने का 
नए नए अपनों का पुरानी यादों  और सपनों का 
जब भी कभी हो जाता सफ़र नितांत एकांत  
अतीत का कोइ टुकड़ा बन जाता है दृष्टांत
तन्हाई तो है वरदान प्रतिकूलता के भेष में 
घूमता है दिल-ओ-दिमाग विचारों के देश में 
(इमि/१७.१०.२०१४)

हम तो हैं प्रामाणिक नास्तिक आवारा

हम तो हैं प्रामाणिक नास्तिक आवारा 
दौड़ मस्जिद-मंदिर की नहीं है गवारा 
सहम जाती है मूल्ले-पण्डे की तंग नज़र 
देख हम अजम-ए-जूनूं वालों की की डगर
हम घूमते नहीं गायब कोल्हू बैल की तरह 
उड़ते हैं गगन में आज़ाद परिंदों की तरह 
इरादे है बुलंद अपने आसमां से आगे 
बाँध नहीं सकते उन्हें जज़्बात के धागे
अरमानों कला है नहमारा है अनन्त
(इमि/17.१०.२०१४)

Thursday, October 16, 2014

फूटनोट २२

सभ्यता मनुष्य (व्यक्तियों) में द्वैध भाव यानि दोहरेपन का संचार करती है, हर कोइ   (अपवाद नियम की पुष्टि करते हैं) वह दिखाना चाहता/चाहती है जो वह होता/होती नहीं-सार और स्वरुप का चिरंतन अंतर्विरोध. यह अंतर्विरोध तथाकथि सबसे घनिष्ट रिश्तों -- परिवार और प्रेमी -- में ज्यादा साफ़ दिखता है. मा-बाप-बच्चे एक ही छत के नीचे रह्जते हुए कभी सार्थक संवाद नहें करते, सिर्फ सूचनाओं का आदान प्रदान करते है. प्रेमी युगल एक सरे को प्रभावित करने के लिए वह दिखने की कोशिस करते रहते हैं जो होते नहीं. अपन तो जैसे  हैं उससे इतना इश्क है कि सीमित ऊर्जा व्यर्थ अभिनय में बर्बाद करने की जरूरत नहीं पड़ती. हा हा .

विचार हों जब प्यार का आधार

होती हैं इश्क की कई कोटियाँ 
अपना तो इश्क अजीब था 
उपहारों की बात ही छोड़ो 
हाँ, उपहार सिनेमा करीब था 
करते थे आशिकी बेबाक
अरावली की पहाड़ियों में 
कीकड़-बबूल की झाड़ियों में 
खाते थे तोड़कर जंगली बेर 
 करते थे सूखी झील की सैर
घूमते घंटों पहाडी पगडंडियों पर
प्यार की बातें  चलतीं रात भर 
भोर में पहुंचते काशीराम के ढाबे पर  
सुबह की चाय में रात की बात का असर 
विचार हों जब प्यार का आधार 
संपन्न रहता है यादों का संसार 
(इमि/17.१०.२०१४)

क्षणिकाएं ३५ (५६१-५७०)


561
चाँद-सूरज दूर से ही भले लगते हैं हो भले ही सही
इंसानी नजदीकियों से ही मिलता सुकून-ए-दिल 
(इमि/१०.१०.२०१४)
562)
परिवार है बुनियाद-ए- मर्दवाद
समानता को करता बरबाद
(इमि/10.10.2014)
563
सुनो सुधीश पचौरी!
तुम गिरगिट देश नरेश हो
पांचवे कॉलम के भग्नावशेष हो
जब तुम कहते थे क से होता कम्युनिस्ट
लगता था हो तुम कोइ विद्वान विशिष्ट
मिला जैसे ही  कुर्सी का सन्देश
तुम बोले क से अब होगा कांग्रेस
बिना नेहरू वंश के नहीं चलेगा देश
कहते थे तुम भूमंडलीकरण को साम्राज्यवाद
कर देगा यह मुल्क का अर्थतंत्र बर्बाद
मिला जैसे ही आश्रय कुर्सी का और एक बड़ा टुकडा
घूम गए १८० अंश के कोण से, भूमंडलीय पूंजी से बनेगा मुल्क बड़ा
कायम हो अब भी तुम अपने इस जज्बात पर
एका है गज़ब की सल्तनतों में इस बात पर
बताते थे फिरकापरस्ती को सबसे बड़ा खतरा
बदलते ही सल्तनत बदल गया ककहरा
हो गया राष्ट्र अमन-ओ-चैन से बड़ा
उतार गांधी टोपी केशरिया पगड़ी पहन लिया
अब होता है क से केशव हेडगेवार
मोदी जी हैं जिनकी विरासत के हक़दार
लगाया अक्षर समुच्चय में एक लम्बी छलांग
बताया जिसको राष्ट्र धर्म की मांग
क से होगा नहीं  अब शुरू ककहरा
अक्षर समुच्चय पर रहेगा अब से म का पहरा
क से ककहरा है इतिहास की बात
करो म से ममहरे की शुरुआत
अब जब तुम कहते हो म से मोदी
लगते हो कारिन्दा-ए-सिकंदर लोदी
सुनो सुधीश पचौरी!
महसूसता था तुमसे परिचय का अतिशय सम्मान
पाता हूँ उसी को अब घोर बौद्धिक अपमान
कोइ पतन अंतिम नहीं होता
अतल गहराइयों से भी उठना मुश्किल नहें होता
दर-असल हर पतन उत्थान का ऐलान है
वैसे ही जैसे हर निशा एक भोर का ऐलान है.
(इमि/१०.१०.२०१४)
564

लुफ्त-ए-ज़िंदगी है सादगी स्वभाव की 
तूफां की नहीं जरूरत शीतल बयार की 
ओस की भक्ति नहीं दरकार मैत्रे-भाव की 
डर-डर कर जीने का नहीं कोइ फ़ायदा 
बना लो इसलिए निडर जीने का कायदा 
(इमि/११.१०.२०१४)
565
क्या कहती हैं चश्में में छिपी ये ऑंखें
शर्मा कर आमंत्रित करती है महसूसने को 
ढलकती चुनरी से झांकते उन्नत उरोज 
समझता  नहीं इशारों का आमंत्रण मन सरोज
करता है मन पीने को अधरों से शहद 
देख यह लावण्य जाता बुड्ढों का मन बहक 
आयेगा आलिंगन में दैवीय आनंद 
पीकर भौंरों सी एक दूजे का मकरंद 
भरेंगे साथ साथ एवरेस्ट की उड़ान 
होंगे हाथों में हाथ न लगेगे थकान
भर चुका हूँ  उड़ान सपनों में कई बार
आओ दें सपनों को हकीकत में उतार 
(इमि/१३.१०.२०१४) 
566
सुनो रनवीर सेना के कायर रणबांकुरो
कुत्तों की तरह झुण्ड में शेर बने गीदड़ों
जन्म की अस्मिता से चिपके चमगादडों
जाति के जाल में फंसे बामन-ठाकुरों 
किया था  कल जिन औरतों का बलात्कार
उठा लिया है उनने आज हाथ में हथियार
हंसिया से काट देंगी बन्दोक थामे हाथ
होगा हिरावल दस्ता जब इनके साथ
खोजेगी वे बेलछी के हैवानों को
मिर्चपुर-बथानीटोला के शैतानों को
सुनो इंसानियत के दुश्मनों, लक्ष्मण-दुर्योधनों!
लड़कियों ने कॉफ़ी बनाना छोड़ दिया है
कलम को औजार ही नहीं हथियार बना लिया है
उट्ठेगा फिर से मुसहरी का किसान
मिटा देगा सामन्ती नाम-ओ-निशान
निकलेगा सड़कों पर छात्र-नवजवान
रख देगा जिस दिन मजदूर औज़ार
ठप हो जाएगा शरमाये का कारोबार
जनावाद की हरकारा बनेगी तब ग़ज़ल
राजकवियों की  ख़त्म हो जायेगी फसल
गूंजेगे चहुँ ओर जंग-ए-आज़ादी के नारे
चमकेंगे भूमंडलीय क्षितिज में लाल सितारे
सुनो शरमाये के चाटुकारों पूंजी के गीतकारों
समझेगा जब दुनिया का मेहनतकश यह बात
मुल्कों की सरहदें हैं हुक्मरानों की खुराफात
तोड़ देगा वह देश-काल की  सारी सरहदें
पार कर जाएगा धर्म-जाति-राष्ट्रवाद की हदें
सुनो गाजापट्टी के नरभक्षियों, नस्लवाद के उद्धारकों
दुनिया भर बुशों-ब्लेयरों-कड़ीयों-शरीफों ध्यान से सुनो
तान देगा तब बन्दूक वह अपने ही हुक्मरानों पर
काबिज होगा भूमंडलीय पूंजी के सभी ठिकानों पर
सुनो अवतार-पैगम्बरों के नुमाइंदों मजहब के ठेकेदारों
अरस्तुओं-मनुओं-एडम स्मिथों गैरबराबरी का विचारकों सुनो
नहीं है कुदरत की विरासत गैरबराबरी
गढ़ती है इसे जतन से  विद्वानों की बिरादरी
जन जाएगा जब मजदूर-किसान यह बात
छात्र-नवजवान होगा उसके साथ
जला दिए जायेंगे वे सारे दर्शन और ऋचाएं
खींचती हैं जो छोटे-बड़े की दारुण रेखाएं
लिखी जायेंगी तब नई संहिताएँ
स्वतंत्रता-समानता के भाव जो दर्शायें
(अधूरी)
(इमि/१३.१०.२०१४)
567
खुदा के बन्दों को उसी के और बन्दों से खतरा
समझ से परे है यह खुदाई ओ बंदगी का लफडा
उसी के आदेश से बुश ने किया इराक पर हमला
खुदा के विरासत की खिदमत में सद्दाम हुसैन मरा
हिन्दुस्तान में खुदा ने मुश्किल वक़्त में मोदी को चुना
उसी के घर के लिए ढहा दी गयी थी बाबरी मस्जिद
था  जो शायद खुदा की ही इबादतगाह समुचित
खुदा के घर के नाम पर खुदा का घर उजाड़ा
उसी के नाम पर मुल्क का माहौल बिगाड़ा 
बंटा मुल्क खुदा के नाम पर मरे लाखों बेकसूर
कश्मीर का मुद्दा बना हुआ है इतिहास का नासूर
उठता है जब भी सरकारों की वैधता पर सवाल
सुनाई पड़ता है दोनों देशों में सरहद पर बवाल
होते हैं जहाँ भी संसदीय जनतंत्र के चुनाव
फैलता है उसके नाम पर मजहबी तनाव
मालुम नहीं हमें खुदा एक है  या हैं बहुत से
करते हैं हुड़दंग सभी झंडाबरदार उसके
ईश्वर की है महिमा अनंत और अपरम्पार
ठेंगे पर रखते वे मनुष्यों का संसार
हे प्रभु! धन्य है आपका सर्वव्यापी प्रभुता भाव 
इतिहास को दिए हैं आपने कितने ही गहरे घाव
(इमि/१४.१०.२०१४)
568
कहते हैं  हवालात से फरार कुछ अपराधी पहुँच गए किसी खुदा के दरबार में 
दे पैगम्बरों से करीबी का हवाला ले आये फरिश्तों की सनद अपने बारे में 
देख मुल्क के मुश्किल हालात अच्छे दिन के लिए चुन लिया खुदा  ने उन्हें 
कुछ रह गए विधानसभा तक ही कुछ लोकसभा पहुँच गये
ईश्वर तो अन्तर्यामी है जान गया जनता की चाह 
अच्छे दिनों के लिए चाहिए  एक चमत्कारी शहंशाह 
था जो सबसे शातिर फ़रिश्ता बना दिया उसे ही बादशाह 
आस्थावान देश के लोग मानते रहे फ़रिश्तों के आदेश 
 भूमंडलीय साम्राज्यवाद के रसातल में समाता रहा देश
हो गया मगर जल्दी ही फरिश्तों का पर्दाफ़ाश   
उठ गया लोगों का खुदा पर से विशवास 
यह जानकार  लोग रह गए हक्का बक्का 
समझते थे जिसे खुदा निकला चोर-उचक्का 
धीरे धीरे लोगों को समझ आ जायेगी ये बात 
धर्म कर्म की बातें हैं शातिर दिमागों की करामात 
(इमि/१४.१०.२०१४)
569
इलाहाबाद विवि के एक ग्रुप में मेरी एक कविता पर जिसमें जनवाद का ज़िक्र नहीं था, एक सज्जन ने कमेन्ट किया कि  जनवाद एक फैसन है. उस पर मेरा कमेन्ट:
जी हाँ, एक इन्किलाबी फैसन है जनवाद
यथास्थिति को खारिज करने का साहस है जनवाद
गरीब-गुरबा का ज़ुल्म को जवाब है जनवाद
इन्साफ की दुनिया का ख्वाब है जनवाद
हालात से लड़ने का जज्ब़ात है जनवाद
जोर-ज़ुल्म को ललकारने का नाम है जनवाद
दुनिया के मजदूरों का इन्किलाब है जनवाद
(इमि/१६.१०.२०१४)
570
अचानक याद आ गयी आपकी आज
याद कर रहा था अतीत की कोइ बात

(इमि/17.१०.२०१४)