हारे को हरिनाम का ही बार बार ताज्जुब होता था, अब जीते को हरिनाम पर ताज्जुब होना बंद हो गया. सुधीश पचौरी जी मेरे भी अग्रजतुल्य मित्र रहे हैं. जब डीन बने तो ताज्जुब हुआ था. इसलिए नहीं कि काबिलियत पर संदेह था, इसलिए कि इन पदों पर नियुक्ति यथास्थिति के समर्थन भाईभतीजावाद के मानकों के तहत होती है. और ताज्जुब तब हुआ जब 2011 में स्टाफ असोसिएसन के अध्यक्ष के रूप में स्टाफ क्वार्टरों के अलॉटमेंट में गवर्निंग बॉडी की मनमानी के सिलसिले में मिलने गया. अच्छा लगा था कि उन्होने हमारी टीम का ससम्मान स्वागत किया लेकिन कुछ ही देर में यह सुन, "ईश कब तक नारे लगाते रहोगे?" कानों पर संदेह होने लगा था, लेकिन संदेह खत्म होते ही ताज्जुब होना भी बंद हो गया. तब कोई ताज्जुब नहीं हुआ जब दिनेश सिंह के शासनकाल में न सिर्फ पद बचा रहा बल्कि प्रोन्नति पा गये. एक बात पर मुझे लगातार ताज्जुब होता रहता है कि कई "बड़े" लोग तब समझौते करते हैं जब पाने को कुछ नहीं होता खोने को बहुत कुछ.
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