Shashank Shekhar सचिन के दसवीं पास-फेल की बात प्रसंगबस किया ल कि बेडिग्री विद्वानों का मजाक बनाने के लिए. तुमने गौर किया होगा कि विभिन्न संदर्भों में बारंबार कहता हूं कि पढ़े-लिखे जाहिलों का प्रतिशत अपढ़ जाहिलों से अधिक है.बौद्धिक महानता की मेरी अवधारणा मेरे 2 पसंदीदा नायक अपढ़ रहे हैं. कबीर ने तो कलम नहीं पकड़ा, रूसो को लिखना-पढ़ना आता था. शैक्षणिक संस्थानों का मक्सद ज्ञान प्रदान करना नहीं, विद्यार्थियों को यथास्थिति को बरकरार रखने और मजबूत करने की जानकारियों, दक्षताओं और दुराग्रह-पूर्वाग्रहों से लैस करना है. ज्ञान ताकत है, कोई भी शासकवर्ग " अपनी" जनता को हथियारबंद नहीं करना चाहता. फ्रांस के शासकों ने पेरिस के मजदूरों को ङथियारबंद करने की गलती किया था और मजदूरों ने जर्मन दुश्मनों को खदेड़ने के बहाद बंदूकें अपने ही शासकों के खिलाफ तान दी. पेरिस कम्यून तो अल्पजीवी रहा लेकिन इतिहास में मिशाल कायम कर गया. लेकिन अनचाहे परिणामों के फलस्वरूप ये परिसर एक तालिमी माहौल और वैकल्पिक बौद्धिक चिंतन का अवसर प्रदान करते हैं. " तोड़ोगे ग़र कलम मेरा और निखरेगी आवाज़". कबीर और रूसो को श्रम की अवहेलना की अनुभूति और स्वाध्याय और व्यवस्था की विसंगतियों ने वैकल्पिक समाजीकरण का अवसर प्रदान किया जो उनके बौद्धिक विकास के इंजन बने. बेचारा, अभागा सचिन, शैक्षणिक संस्थाओं के परसरीय समाजीकरण से वंचित तो रहा ही, किशोरावस्था से ही चांदी की चौंध और और भगवानत्व के गुमां ने उसका नैतिक-बौद्धिक विकास बाधित कर दिया, और यह बेचारा न अंबानी बन पाया न रूसो या कबीर, बस माल बेचने में शगूल रहा.
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सहमत ।
ReplyDeleteजी
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