Saturday, July 5, 2014

DU 21 (Adhoc)

तदर्थता इस विवि में एक स्थाई भाव सा बन गया है. मैं तो तदर्थता के लिए सालों-साल भटकता रहा और वह मुझसे कटती रही. हा हा तदर्थता नियमितता का दरवाजा है. वरिष्ठ लोगों को याद होगा कि 1990 के शुरआती कुछ सालों में कोई नियमित इंटरविव नहीं हुए और जब 3-4 साल बाद हुए तो मजाक बन गये क्योंकि हर पद पर कोई-न-कोई तदर्थ पढ़ा रहा होता था इसलिए उस पदपर उसका स्वाभाविक अधिकार बन जाता था, बाकी के इंटरविव खानापूर्ति भर होता था. स्थाई भाव में तदर्थता एक साजिश है. इसी लिए मैं कहता रहता हूं कि जो दुर्भाग्य से तदर्थता से वंचित रह जाते हैं उनके साथ भी न्याय होना चाहिए. 

Rajeev Kunwar संघर्ष में विखंडन की भाषा आत्मघाती होती है. परिवर्तन के गतिविज्ञान की सचलता निरंतर होती है और अनुयायी कैप्टिव नहीं होते. और हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह हमारी शक्ति की विजय नहीं है, सरकारी सहायता का परिणाम है. हमारी इतनी ताकत तो है नहीं कि गेट के अंदर सभा कर सकें.अभी बहुत लड़ाइयां आगे हैं, आइए छात्र-शिक्षक एकता को मजबूत करें.

2 comments:

  1. तदर्थ फिर भी सम्मानीय है । अंशकालिकों के बारे में क्या राय है? मैंने जब शुरु किया था तदर्थ बंद कर दिया गया था और अंश्कालिक को 700-1600 के स्केल के 700 का आधा यानि 350 मिला करता था और घंटी बजाने वाले परिचारक का वेतन 2500 हुआ करता था फिर 2200 4000 का 1100 साल भर मे कुल छ: माह नौकरी और छ: नियुक्ति पत्र भी :) ऐसे ही एक दशक कट गया था ।

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  2. अपनी तो और भी बुरा हाल था. 700-1600 वाले स्केल में मैंने 3-4 महीने गेस्ट लेक्चरर के रूप में एक कॉलेज में पढ़ाया 30 रुपये की दर से. फिर कोई तदज्र्थ या अंशकालिक मौका नहीं मिला. 2200-4000 वाले समय में 1988 में इग्नू में अकेडमिक असोसिएट की नौकरी मिली जिसे लेक्चरर में तब्दील करने का फैसला ले लिया गया था. 1989 में एक कॉलेज में टेमपोरेरी नौकरी मिली 1991 में नियमिस के इन्टरविव में निकाल दिया गया. 1995 में दुर्घनावश मिल गयी नियमित नैकरी.

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