The tested conspiratorial tactics of ruling classes in all the historical ages have been to over-project their internal mostly artificial and superfluous contradictions as the major contradiction of the society in order to blunt the edge of the major contradiction of the society and use their ideological apparatuses to garner its acknowledgement. The major contradiction today is contradiction of 1% v/s 99%; of people's ambition of self reliance v/s corporate ambition of greater plunder and accumulation. Distraction is one such tactic. On this forum when there is serious concern regarding the future of FYUP batch delay in course structures etc and a rare unity and interaction among the teachers with varying perspectives but concurrent interest of restoring the dignity of the campus. Some one posted a slogan to choose b/w the ideals of Shivaji-Ranapratap and Aurangzeb-Aklbar. My comment:
@राजीव गुप्ता:अपने वैचारिक दिवालियेपन और किसी सकारात्मक आर्थिक-सामाजिक दृष्टि के अभाव में, रह रह कर मजहब के सियासती तिजारतियों के सिरों पर अकबर-राणाप्रताप, शिवाजी का भूत सवार हो जाता है. आज़ादी के लड़ाई के दौरान भी ये इसी तरह हिंदू-मुसलमान के शगूफे से आंदोलन को कमजोर कर अपने अंग्रेज महाप्रभुओं की सेवा कर रहे थे. आंदोलन को बांटने कि लिए अंग्रेजों ने यह शगूफा छोड़ा था. संघी-जमाती आज तक उसकी रोटी खा रहे हैं. थोड़ा इतिहास पढ़ भी लें राजीव गुप्ता जी. अफवाहजंय संघी इतिहासबोध को कुछ पढ़-लिख कर प्रामाणिक बना लें. अकबर और राणाप्रताप तो इतिहास में सुशोभित हैं और उनके वंशज गुमनामी की खोह में खो गये. देश को तय करना है कि देशी-विदेशी कारपोरेयों को रेल और देश बेचने वाले शासन करेंगे कि जनता जागृत हो अपने मामलों की बागडोर खुद थामेगी. आपके बहाने इतिहास के विखंडन से कुतर्क के सारे विद्वानों से पूछना चाहता हूं कि आज जब देश आसमान छूती मंहगाई के बोझ से कराह रहा है. कारपोरेटी नीतियों और शिक्षा के व्यापारीकरण के चलते अशिक्षा-कुशिक्षा, अशिक्षित-शिक्षित बेराजगारी और गैरबराबरी से समाज में अपराधीकरण बढ़ रहा है (अपराधी सांसद और मंत्री भी बन जाते हैं), यही आलम रहा तो देश गृहयुद्ध के कगार पर पहुंच जायेगा. आज इन समस्याओं पर गहन-विचार-विमर्श की आवश्यकता के संदर्भ में अकबर-राणाप्रताप द्वंद्व का विषयांतर के के विषय के अलावा क्या प्रासंगिता है? अकबर-राणाप्रताप की लड़ाई तलवार की लड़ाई थी, विचार की नहीं. जिसके पास ज्यादा तलवारें और बेहतर रणकौशल होता था वह जीतता था. जरूरी नहीं है कि विजयी श्रेष्ठ शासक हो. आज की राजनीति विचारों की लड़ाई है, इस लड़ाई में, तमाम कारणों से, जनवादी जनचेतना के अभाव के चलते कई बार कुतर्क तर्क पर और कुविचार अन्य विचारों पर भारी पड़ते है. प्राचीन यूनान में, युवकों में अनुशासनहीनता और नास्तिकता फैलाने के मनगढ़ंत आरोपों के जवाब में एथेंस की न्यायिक सभा में सुरात के तर्क तो अकाट्य थे. लेकिन कुतर्क का बहुमत तर्क पर भारी पड़ा. इतना ही नहीं, बाहर उंमादी भीड़ भी सुकरात को फांसी दो के नारे लगा रही थी. सुकरात को तो खैर मार डाला गया. आज़ादी के लिए उठा उनका हाथ और विरोध के स्वर, निडर सच्चाई की लड़ाई के प्रेरणापुंज बन गये, लेकिन इतिहास गवाह है जब भी कुतर्क का बहुमत तर्क पर भारी पड़ता है तो पैदा होता है दुनियां को जूते की नोक पर रखने की महत्वाकांक्षा वाला कोई सिकंदर जो एथेंस सरीखी आर्थिक वैभव से परिपूर्ण दर्शन और ज्ञान की परंपराओं को घोड़ों की टापों से रौंद कर मटियामेट कर देता है. और युगांत हो जाता है, दर्शन और ज्ञान की समूची परंपरा का.पाशचात्य राजनैतिक दर्शन की उद्गम भूमि समझे जाने वाले यूनान में अरस्तू और पॉलीवियस (जिसे रोमन यूनान के उपनिवेशीकरण के दौरान रोम ले गये) के बाद से आज तक किसीने किसी दार्शनिक-चिंतक का नाम सुना है क्या? आिए मिलजुल कर कुतर्क के आत्मघाती बहुमत के प्रसार को रोकें. (बुढ़ापे की अनुशासनहीन, बौद्धिक आवारागर्दी खतरनाक होती है. 2 वाक्य का कमेंट लिखने के लिए रुका और फिर रुका ही नहीं. मॉफी.)
@राजीव गुप्ता:अपने वैचारिक दिवालियेपन और किसी सकारात्मक आर्थिक-सामाजिक दृष्टि के अभाव में, रह रह कर मजहब के सियासती तिजारतियों के सिरों पर अकबर-राणाप्रताप, शिवाजी का भूत सवार हो जाता है. आज़ादी के लड़ाई के दौरान भी ये इसी तरह हिंदू-मुसलमान के शगूफे से आंदोलन को कमजोर कर अपने अंग्रेज महाप्रभुओं की सेवा कर रहे थे. आंदोलन को बांटने कि लिए अंग्रेजों ने यह शगूफा छोड़ा था. संघी-जमाती आज तक उसकी रोटी खा रहे हैं. थोड़ा इतिहास पढ़ भी लें राजीव गुप्ता जी. अफवाहजंय संघी इतिहासबोध को कुछ पढ़-लिख कर प्रामाणिक बना लें. अकबर और राणाप्रताप तो इतिहास में सुशोभित हैं और उनके वंशज गुमनामी की खोह में खो गये. देश को तय करना है कि देशी-विदेशी कारपोरेयों को रेल और देश बेचने वाले शासन करेंगे कि जनता जागृत हो अपने मामलों की बागडोर खुद थामेगी. आपके बहाने इतिहास के विखंडन से कुतर्क के सारे विद्वानों से पूछना चाहता हूं कि आज जब देश आसमान छूती मंहगाई के बोझ से कराह रहा है. कारपोरेटी नीतियों और शिक्षा के व्यापारीकरण के चलते अशिक्षा-कुशिक्षा, अशिक्षित-शिक्षित बेराजगारी और गैरबराबरी से समाज में अपराधीकरण बढ़ रहा है (अपराधी सांसद और मंत्री भी बन जाते हैं), यही आलम रहा तो देश गृहयुद्ध के कगार पर पहुंच जायेगा. आज इन समस्याओं पर गहन-विचार-विमर्श की आवश्यकता के संदर्भ में अकबर-राणाप्रताप द्वंद्व का विषयांतर के के विषय के अलावा क्या प्रासंगिता है? अकबर-राणाप्रताप की लड़ाई तलवार की लड़ाई थी, विचार की नहीं. जिसके पास ज्यादा तलवारें और बेहतर रणकौशल होता था वह जीतता था. जरूरी नहीं है कि विजयी श्रेष्ठ शासक हो. आज की राजनीति विचारों की लड़ाई है, इस लड़ाई में, तमाम कारणों से, जनवादी जनचेतना के अभाव के चलते कई बार कुतर्क तर्क पर और कुविचार अन्य विचारों पर भारी पड़ते है. प्राचीन यूनान में, युवकों में अनुशासनहीनता और नास्तिकता फैलाने के मनगढ़ंत आरोपों के जवाब में एथेंस की न्यायिक सभा में सुरात के तर्क तो अकाट्य थे. लेकिन कुतर्क का बहुमत तर्क पर भारी पड़ा. इतना ही नहीं, बाहर उंमादी भीड़ भी सुकरात को फांसी दो के नारे लगा रही थी. सुकरात को तो खैर मार डाला गया. आज़ादी के लिए उठा उनका हाथ और विरोध के स्वर, निडर सच्चाई की लड़ाई के प्रेरणापुंज बन गये, लेकिन इतिहास गवाह है जब भी कुतर्क का बहुमत तर्क पर भारी पड़ता है तो पैदा होता है दुनियां को जूते की नोक पर रखने की महत्वाकांक्षा वाला कोई सिकंदर जो एथेंस सरीखी आर्थिक वैभव से परिपूर्ण दर्शन और ज्ञान की परंपराओं को घोड़ों की टापों से रौंद कर मटियामेट कर देता है. और युगांत हो जाता है, दर्शन और ज्ञान की समूची परंपरा का.पाशचात्य राजनैतिक दर्शन की उद्गम भूमि समझे जाने वाले यूनान में अरस्तू और पॉलीवियस (जिसे रोमन यूनान के उपनिवेशीकरण के दौरान रोम ले गये) के बाद से आज तक किसीने किसी दार्शनिक-चिंतक का नाम सुना है क्या? आिए मिलजुल कर कुतर्क के आत्मघाती बहुमत के प्रसार को रोकें. (बुढ़ापे की अनुशासनहीन, बौद्धिक आवारागर्दी खतरनाक होती है. 2 वाक्य का कमेंट लिखने के लिए रुका और फिर रुका ही नहीं. मॉफी.)
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