Thursday, July 31, 2014

लल्ला पुराण 162

@sumant bhattacharya: मोदी गुजरात आंदोलन के समय संघ के प्रचारक थे. जेपी आंदोवन में संघियों के शामिल होने से ही आंदोलन दिशाहीन हो गया. भ्रष्टाचार के विरुद्ध स्वस्फूर्त आंदोलन ने राजनैतिक बनवास झेल रहे जेपी को एक अवसर प्रदान किया, और उस पर उन्होने सांप्रदायिक मुलम्मा चढ़ा दिया. आपातकाल में नैनी जेल के सारे संघियों ने 20 सूत्री कार्यक्रम का स्वागत कर मॉफी मांगी फिर भी नहीं छूटे अलग बात है.  सरसंघचालक ने इंदिरा गांधी तको खत लिख कर 20 सूत्री कार्यक्रम को राष्ट्र हित मे बताकर स्वागत किया. मोदी के राजनैतिक जीवन की शुरुआत 2002 में होती है जब आडवानी ने अदूरदशिता के चलते अपने 2 दशक पुराने सांप्रदायिक उन्माद और ध्रुवीकरण के प्रयासों पर शान चढ़ाने के लिए मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनवाया. मोदी ने उन्हे उपकृत करने और अपना रास्ता बनाने के लिए गोधरा के प्रायोजन और उसके बहाने गुजरात में हत्या बलात्कार और आगजनी तथा लूटपाट बर्बर तांडव रचा. जब तक लोगों में भर्मांधता और अक्लबंदी की जहालत मौजूद है अमितशाह और मोदी जैसे चतुर लोग लोगों को आपस में लड़ाकर सियासती रोटियां सेंकते हुए अंबानी-अडानी की सेवा करते रहेंगे. वैसे तुमने बताया नहीं कि मोदी जी ने ऐसा क्या वाद वाक्य बोल दिया जिस पर तुम जैसे स्वघोषित वामपंथी फिदा हो गये. 12 साल गुजरात में क्यां नहीं चलाया कोई राम बाण और बचाया हजारों किसानों की आत्महत्या. सत्ता में बदलाव के साथ बुद्धिजीवियों के सुर भी बदल जाते हैं.

Sumant Bhattacharya Iघूम घूम कर गरियाने का मेरा कोई शौक नहीं है. मैं सार्वजनिक मुद्दों के निजीकरण पर यकीन नहीं रखता उसी तरह जैसे सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण पर. 1998 में, अटल सरकार से उपकार की आशा में आशीस नंदी, टीयन मदान, परिमल दास जैसे तमाम बुद्धि जीवियों और जॉर्ज गिरोह के तमाम समाजवादियों को सेकुलरजिज्म देश में सबसे बड़ा खतरा नज़र आने लगा था उसी तरह जैसे तुम्हारे जैसे तमाम बुद्धिजीवियों को देश बेचने के ऐलान के बावजूद मोदी मशीहा लग रहा है. आगे आगे देखो 5 साल बाद देखने को क्या बचता है. तुम्हारे बार बार आग्रह के बावजूद अभी भी नहीं कहूंगा कि सुमंत मोदिया गया है. विवेक पर शान चढ़ाओ.
वामपंथी आंदोलन को क्या करना चाहिए, वह अलग बहस का मुद्दा है, जब भी जनवादी आंदोलन कमजोर हड़ता और बिखरता है तभी अधोगामी सांप्रदायिक ताकतें आक्रामकता से मुखर होती हैं. तुमने यह नहीं बताया कि मोदी जी ने कहा क्या जिससे मुल्क का कायापलट हो जायेगा. किस बदलाव के विरोध की बात कर रहे हो रेल और, फौज तथा देश का रपोरेट को बेचने के बदलाव की बात कर रहे हो, दकियानूसी कट्टरपंथी कारपोरेट-सेवक नेता लफ्फाजी करते हैं और उन्हे तुम्हारे जैसे प्रतिष्ठित भोंपू मिल जाते हैं. मैं नहीं जानता कि तुमने कब और कैसी कृषि पत्रकारिता की लेकिन किसान का बेटा होने के नाते खेती की मुसीबतें समझता हूं. मोदी जी इतने बड़े कृषिवैज्ञानिक और युगद्रष्टा हैं तो सांप्रदायिक जनसंहार की तरह इसे भी गुजरात में क्यों नहीं लागू किया हजारों किसान आत्म हत्या से बच जाते.

 1950-200 तक गुजरात में जो भी विकास या कृषि सहकारिता के काम हुए उसका श्रेय मोदी जी को है क्या? मोदी जी के शासन में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला शुरू हुआ. मैंने तुम्हारी पत्रकारिता की गुणवत्ता पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया क्योंकि मैंने पढझ़ नहीं तुपम्हारे कृषि पत्रकारिता के लेख. न ही मोदी की लफ्फाजी सुनने का समय है मेरे पास, मोदी की कऋ,ि-वैज्ञानिकता के महिमामंडन करने के लिए कुढ अंश उद्धृत करना चाहिुए था. चलो देखते हैं भारत के किसानों के अच्छे दिन. मैं अब भी नहीं कहूंगा कि सुमंत मोदिया गया है. 

लल्ला पुराण 161

Chandra Bhushan Mishra  गाफिल जी, आपने बुला ही दिया, आखिर. चुनाव के पहले से ही दिन में कम-से-कम एक और कभी कभी अधिक बार कहता आ रहा है कि लोग कहेंगे सुमंत मोदिया गया है, लेकिन अभी तक किसी ने कहा नहीं, और न ही अभी तक जमानत पर रिहा भाजपा अध्यक्ष की निगाह में अभी तक यह बात आई. लेकिन नर हो न निराश करो मन को. यह वैसे बताया कि ऐसा क्या कह दिया कि सिंधुघाटी विहार ले जाने वाले मोदी जी उन्हें आधुनिक घाघ लगने लगे? गुजरात जैसा कृषि विकास जिसमें किसानों के प्रतिरोध को राष्ट्रहित मे कुचलते हुए औने पौने दामों में अडानियों-अंबानियों-टाटाओं को दे दिया और बची जमानों में इतनी उपज बढ़ गयी कि खुशी से हजारों किसानों ने खुदकुशी कर ली और स्लिम बनने के चक्कर हर तीसरा बच्चा कुपोषित. सीलिंगऐक्ट और लैंड-यूज ऐक्ट में तो अटल जी ने ही कारपोरेटी बदलाव शुरू कर दिया था साम्राज्यवाद की वफादारी में उनके प्रतिद्वंदी मनमोहन ने उसे आगे बढ़ाया, मोदी जी उसे तार्किक परिणति तक पहुंचाएंगे. कितना भी कर लो मैं तो नहीं कहूंगा सुमंत मोदिया गया है.

Tuesday, July 29, 2014

DU 38 (Education and Knowledge 9)

KB GuptaThat too is your problem and personal aspersion in public discourse is indication of mental bankruptcy. What seems to you about me, is exclusively your problem, I cant help it. History is not about what seems to a communal or secular mindset but what can be substantiated and inferred from the historical sources; it is not about prejudices or myths and propaganda but proven record of the socio-economic changes in the process of human development since the humans began distinguishing themselves from the animal kingdom by producing their own survival by labor facilitated by the brain in its embryonic form. Forcing on children on public expanses the myths, prejudices and chauvinistic fictional fantasies of Mr.Batra, to blunt their critical tendencies and innovative aptitude and convert them into parrots and sheep is crime against the childhood. . Government could oblige Batra in some other way. But our children are intelligent humans, as son as they get wider exposures they would be able to differentiate between myth and reality, nevertheless such forced fed indoctrination shall certainly impede  the process of their intellectual development and shall require more countervailing force.

सम्मोहन

हो सकता है सम्मोहन कभी किसी की किसी खास बात से
प्यार मगर उगता है दिलो-दिमाग के आपसी जज़बात से
करता है कोई जब सम्मोहित होता ही है मनमोहन
प्यार की पारस्परिकता पर खरा नहीं उतरता सम्मोहन
(ईमिः29.07.2014)

जिन्ना-सावरकर

जिन्ना-सावरकर भाई मौसेरे
मौदूदी-गोलवलकर जुड़वे
अंग्रेजों का था सर पर हाथ
निकले देश तोड़ने साथ
खत्म हुआ जब अंग्रेजी राज
अमरीका बन गया इनका बाप
अंग्रेजों का था जैसा संदेश
एक से बन गये तीन देश
छोड़ेंगे नहीं ये कुछ भी शेष
बन गया भारत नव-उपनिवेश
(ईमिः29.07.2014)

Monday, July 28, 2014

एक तरफा चाहत

एक तरफा चाहत का है ये शुकून-ए- मरम
पाने की न तमन्ना थी तो खोने का क्या ग़म
दरअसल यह प्यार नहीं, है महज सम्मोहन
सबका होता है कभी-न-कभी कोई मनमोहन
(ईमिः29.07.2014)

समकोण त्रिभुजों का शंकु है कयानात

बन गयी है रवायत सर झुकाकर रहने की
सर की हां में हां मिलाकर अपनी बात कहने की
सर की बात सदा प्रतिध्वनित करने की
यही है मूलमंत्र छोटे सर से शुरुआत करने की
भूल जाते हैं जो अभागे हेकड़ी में यह मूलमंत्र
दूर ही रखता है उन्हें यह त्रिशंक्व ज्ञानतंत्र
झुकाकर सर सर भी मिलाते हैं हां में हां
बड़े सर होते हैं जब भी कभी वहां
बड़े सर भी रहते हैं झुकाकर सर
मिलते हैं जब कभी और बड़े सर
चलता है सिलसिला सर-सरों का
सबसे बड़े और छोटे-बड़े बड़ों का
नहीं समझ पाता यह साक्षात बात
समकोण त्रिभुजों का शंकु है कयानात
(ईमिः29.07.2014)

इश्क-ए-इज़हार

एकतरफा नहीं होता कभी कोई प्यार
हो नहीं पाता कभी कभी इश्क़-ए-इज़हार
(ईमिः20.07.2014

शिक्षा और ज्ञान 14

आलू-टमाटर का दाम तो प्रतीकीत्मक है. ये कारपोरेटी दलाल 5 साल में देश बेंच देंगे, दिक्कत आई तो फिर दंगे करवा देंगे, मार देंगे कुछ हजार इंसान, जमींदोज़ कर देंगे सैकड़ों मकान और दुकान, सार्वजनिक सामूहिक बलात्कार आयोजित कर देंगे -- न देखेंगे बच्ची न बूढ़ी और मनायेंगे शौर्य दिवस हैवानियत के तांडव का और बन जायेंगे राष्ट्र-भक्त, दे देंगी क्लीन चिट बिकी हुई अदालतें, चल पड़ेंगी इंसानी शक्ल में भेंड़े पीछे-पीछे, क्लीनचिट-क्लीनचिट रटने लगेंगे तोते और फिर चुन लिए जायेंगे ये सरदार हैवानियत के जनतंत्र के. समझ में नहीं आता कि ये पढ़े-लिखे लोग जेहनी तौर पर जाहिल होते हैं या पढ़ाई-लिखाई इन्हें जाहिल बना देती है. मैं एक शिक्षक हूं.

ईद

आ्रयेगी ही अमन-ओ-चैन की ईद कभी-न-कभी
कहीं नहीं होगा मातम मनायेंगे खुशियां सभी.
(ईमिः29.07.2014)

मोदी विमर्श 31

जरा भी जिसके पास अकल थी उसे मालुम था अडानी-अंबानी का यह ज़रखरीद भारत को गुजरात बना देगा और अपने कारपोरेटी आकाओं के अच्छे दिन के लिए आवाम बेच देगा. जो अपनी अकल बेच पशुकुल में शामिल हो अच्छे दिन की हुंकार लगा रहे थे वे जाहिल भी इस बदहाली के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितने हत्या-बलात्कार से सियासी सीढ़ियां चढ़ने वाले नरपिशाच शाह और मोदी. हिंदुस्तान में जाहिलों के काटजू के आंकड़ों से सहमति का मन करता है. झेलो अच्छे दिन पढ़े-लिखे जाहिलों. तुम तो झेल लोगे 65 रुपये खर्च कर गरीबी की रेखा पार कर जाने वालों के बारे में क्या कहोगे भारत के डिग्रीशुदा जाहिलों.

इस मंच पर बहुमत अच्छे दिन के पैरोकरों का था. झेलो अच्छे दिन आप तो 100रू किलो टमाटर और 100 रूपये की दाल फिल्म देखने का पैसा बचाकर खरीद लेंगे लेकिन गांव और शहर में क्रमशः 32 और 65 ऱूपये प्रतिदिन खर्च कर गरीबी रेखा पार करने वाले क्या करेंगे? अटल के यनडीए शासन में रेल का खान-पान अपने चहेते धनपशुओं को धन लेकर बेच दिया और प्लेटफार्म पर सस्ता स्वादिष्ट खान-पान के लाखों स्वरोजगारों को बेरोजगार तो कर ही दिया महंगे दाम में घटिया खाने का दाम दे पाने में असमर्थ लाखों गरीब यात्रियों मुंह बांध कर यात्रा करने पर भी मजबूर दिया.य़नडीए की यह कारपोरेटी-मोदी सरकार पूरा रेलवे ही बेचने की तैयारी कर रही है और बैंकों के निजीकरण की.अटल सरकार में विनिवेश मंत्री के तौर पर अरबपति जेटली 2009 के चुनाव की घोषणा के पहले औने-पौने दाम में सरकारी संपत्तियों को बाप की जागदीर समझ औने-पौने दाम में बेचने की जल्दी में था अब तो वित्त मंत्री है, 5 साल में देश बेच देगा. इतिहास न सिर्फ सांप्रदायिक हत्या-बलात्कार की सीढ़ियों से सियासती ऊंचाइयां चढ़ने वाले मोदियों और शाहों को आवाम के साथ गद्दारी का अपराधी ठहरायेगा बल्कि अच्छे दिनों का तोतारटंत करने वालों को भी (इस ग्रुप में पुष्पा और टीयन तिवारियों को खासकर). जरा भी जिसके पास अकल थी उसे मालुम था अडानी-अंबानी का यह ज़रखरीद भारत को गुजरात बना देगा और अपने कारपोरेटी आकाओं के अच्छे दिन के लिए आवाम बेच देगा. जो अपनी अकल बेच अच्छे दिन की हुंकार लगा रहे थे वे भी इस बदहाली के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं.हिंदुस्तान में जाहिलों के काटजू के आंकड़ों से सहमति का मन करता है. झेलो अच्छे दिन. तुम तो झेल लोगे 65 रुपये खर्च कर गरीबी की रेखा पार कर जाने वालों के बारे में क्या कहोगे भारत के डिग्रीशुदा "ज्ञानियों"?.

Sunday, July 27, 2014

ईश्वर विमर्श 11

हर रंग के पोंगापंथी-कठमुल्लों की सोच, रेखागणित की भाषा में समदृष्य (सिमिलर) नहीं, सर्वांगसम (कांग्रुयंट) त्रिभुजों सी है. धर्म की तिजारत करने वाले मानवता के इन दुश्मनों में से किसी का प्राचीनता या धार्मिकता से कुछ नहीं लेना-देना है, सभी पूंजीवाद की नाजायज औलादें हैं. नाजायज इसलिए कि कथनी-करनी के विरोधाभास के अपने दोगले चरित्र के चलते पूंजीवाद इन्हें पालता-पोषता जरूर है लेकिन विवेकसम्मत और अर्मनिरपेक्ष होने के घोषित दावों के चलते खुलकर अपनाता नहीं. धर्म को शासक वर्गों के हाथों में वर्चस्व को बरकरार रखने और जनवादी चेतना की धार को कुंद करने की फरेबी किन्तु प्रभावी विचारधारा मानने वाले हम नास्तिकों का दोनों से लेना-देना है, सामाजिक इतिहास (सोसल हिस्ट्री) के राजनैतिक इतिहास की वैज्ञानिक समझ के लिए.

Thursday, July 24, 2014

नीरो -शिवसेना

 अगर वह मुसलमान न भी होता और रोजा न रखा होता तो भी किसी मजदूर के साथ किसी सांसद की यह मध्ययुगीन, वर्वर लंपटता क्षम्य है क्या? इस तरह के लंपट पहले राजनीतिकों के बाहुबली होते थे अब तख्तापलट हो गया है.

Narendra Kumar Singh Sengar   सही कह रहे हैं, मीडिया मजदूर की नहीं कारपोरेट की रिपोर्टिंग करता है लेकिन मीडिया के इसी चरित्र के चलते ये धमोंमादी लंपट सांसद बन गये है. जब रोम में गरीबी-भुखमरी सो लोग विद्रोह पर उतारू थे तो ध्यान बंटाने के लिए नीरो ने बगीचे में शहर के सेठों और विद्वानों तथा पादरियों की दावत का आयोजन किया. रोशनी के लिए जिल के कैदियों को जलाने का इंतजाम किया. नीरो तो नीरो ही था लेकिन नाच-गाने में मस्त उसके मेहमानों को भी नहीं नागवार गुजरा. इस संपट बिचारे के अलावा शिवसेना के बाकी सांसद और मीडियाकर्मी वहां नीरो के मेहमानों की भूमिका में थे.

सारे धर्मोंमादी नीरो और उसके मेहमान हैं, लेकिन धर्मोंमाद की संघी  समझ वैचारिक दिवालिएपन में लंपटता, हिंसा, लूट-पाट, बलात्कार के जरिए धर्मोंमाद फैालाकर सामंती ऐयाशी और कारपोरेटी दलाली को अंजाम देता है और इसी तरह का कुतर्क करता है. एक बार जनता जागेगी सभी नीरोओं और उसके मेहमानों की वही गति करेगी जो लुई -16 की हुई थी.

Kuldeep K Bhardwaj & Avdhesh Gupta  यूनिवर्सिटी की  डिग्री के बावजूद जन्म की जीववौज्ञानिक दुर्घटना से ऊपर उठने और धर्मनिरपेक्षता को खारिज करने में असमर्थ, तोते की तरह सूडो-सेकुलारिज्म का रट्टा मारने वाले पढ़े-लिखे जाहिलों से पूछता हूं कि असली स्कुलारिज्म क्या होती है? 2 कौड़ी के सड़कछाप गुंडों की तरह कैंटीन के कर्मचारी के साथ बद्तमीजी-बेहूदगी की शिवसेना मार्का लंपटता? और 2कौड़ी के सड़क छाप गुंडों की हरकत करने वाले इन "विधिवेत्ताओं" के समर्थकों केै लिए तो शायद कौड़ी से छोटी इकाई परिभाषित करनी पड़े. अरे बजरंगी जाहिलों, भेड़ और तोते से इंसान बनो. दिमाग मिला है उसे कष्ट दो नहीं तो बचा-खुचा भी नष्ट हो जायेगा. 

Anand Dubey  मित्र, कोई भी बलात्कार या अमानवीय लंपटता सदा निंदनीय है. रोजेदार बलात्कारी जेल में है और हिंदुत्व का ठेकेदार लंपट पुलिस सुरक्षा में. इस पोस्ट में  गिरोह बनाकर भारत के राष्ट्रवादी विधिनिर्माताओं की एक मजदूर के साथ मध्ययुगीन सामंती बर्बरता के लंपट आचरण और एक इज्जतदार मजदूर के सार्वजनिक अपमान की बात की गयी. सांप्रदायिक मानसिकता तर्क को कूड़ेदान में डालकर तोताकर्म में लीन हो जाती है. हर मजदूर इज्जतदार होता है, कम-सेकम उतना जितना कोई परजीवी नेता. जरा सोचिए ऐसे लंपट सांसद (और 2 दर्जन से अधिक आपराधिक मामलों का यह अभियुक्त इस शौर्यकर्म से मंत्री भी बन सकता है.) और मंत्री तथा उनके लटके-पटके ऐसे ही तालिबानी फौरी न्याय को अंजाम दिने लगें तो क्या होगा? इस मुल्क में मेहनतकश की इज्जत और ज़िंदगी महफूज रहेगी क्या?

DU 37

Swati Chandra Shivki  If you have no contact no God/Godfather you may still get a job accidently as it happened with me at the age of 41 after bothering the academic dons for over 15 years in the selection committees in DU and other universities . I don't lament but feel surprisingly fortunate to get one despite lacking all the "essential" qualifications, as, as an atheist cant have a God/Godfather. The accident can be expedited by your "good girl conduct". But the accidents are consequence of rarest of the rare coincidences of favorable circumstances. And accidents may not happen at all if the drivers are alert.  one would  complain of injustice only in just system. One can free oneself by freeing the society.

Tuesday, July 22, 2014

DU 36 (ADHOC)

After the adhocs have been reappointed in DU colleges and received summer salary, the posts should be advertized at earliest and the adhocs must com pet to get in or out. But that does not happen and leads to academic corruption in appointments. Nandita Narain says that the new people should come in new vacancies, then let us demand an ordinance to do away with interviews for the posts occupied by adhocs.  If the new people have to come in new vacancies (may be through the stage of adhoc) then the facade of advertisements and farce of interviews must be done away with. I didn't get an adhoc job for 15 years and hence no regular job because the adhocs have natural right over the posts they have been occupying, mostly through networking.  What I am pleading is not discrimination against adhoc but parity with non-adhocs despite their having edge by their experience. Regularization of adhocs through the formality of interviews practically amounts to the academic crime of job fixing and induction of people who may have exhausted all the chances of jobs through competitive examination. If the adhocs are competent, they can always make their way in free and open competitions.

Sunday, July 20, 2014

DU 35 (Adhoc)

This was a comment written on a post regarding the issue of reappointment of adhoc teachers in DU colleges, but changed my mind and didn't post to avoid unnecessarily annoying many colleagues who are not the perpetrators but victims of the system.

Though the very bitter truth, truth nevertheless is that 99.9% adhocs are appointed in the colleges on the basis of networking and extra-academic considerations and networking and many of them spend more energy in pleasing the seniors and acting as their protectorate to be used as Reserve Force to fracture and faction the unity and struggles against the whimsical dictates of the power than focusing on teaching. I do not blame them as it is defined, though informally,  by the paradigmatic limitations of the existing "realities". Let us try to do away with this. The process must begin from the top. A teacher must teach by example. I am out of race but who ever of us reaches to the apex of the "knowledge system" must try to be fair to all as by doing so a teacher can do best the favor to the "favorite".The system of patronage must be made a thing of the past. Yet I am most strongly in favor of reappointment of all teachers today (21.07.2014) the opening day of the college along with working out workload and time table with the participation of all the colleagues. No particular generation/batch of adhoc teachers can be made the scape goat.  
PS: the 99.9%(with pluses/minuses) is applicable to even through duly constituted Selection Committees and the academic competence is the added qualification

DU 34 (Adhoc)

I am posting this comment on the anxieties of a colleague regardinmg the loss of job by some adhoc colleagues, having served for many years through interviews for the permanent appointment in a DU teachers group:

 Once he has become jobless, he/she is no more a teacher, unless he/she is not temperamentally also a teacher. These are the ironies and lacuna of the system of the set of autonomies including the duly constituted selection committees;  "convention" of favoritism, nepotism, patronization among the so-called custodians of the higher academics, so called because in my understanding of a teacher, 2 of the definitional preconditions are: transcendence of personal considerations and ability and will to teach by example.  I have full sympathies with some one losing job after being on adhoc for 9 years are even less in the interview of permanent selection. Had interviews been bit postponed, that the college could have easily managed if wished so, they would not have been deprived of their summer salaries. The university/college had enough time to judge his/her ability. I do not know the protagonists (taken in and ousted) of case/cases therefore, am in no position of discussing the relative merit but 9 years adhoc is as surprising as few other past/present cases that I know of longer periods of adhoc, as the interviews have been stalled since3 last 4-5 years? Its the tricky issue to a clear stand on. In principles I am against natural right of the adhoc to be permanent. Their experience must have helped them improve their articulation/communication/expression/abilities and competence in the subject.  This itself gives an  edge over others to compete at par, so that the unfortunate non-adhocs in the race also get fair treatment but there is no way to authenticate the fairness of the fair treatment. I never got an adhoc job in this or any other university during my around one and half a decade visits to the campuses of various universities and colleges of Delhi and outside before not unexpectedly but unbelievably getting one permanent ( and a year temp 5 years before that).( I will write an anthology of my select interviews and their aftermaths, some time if time permits).  Very honestly speaking I don't lament about getting the job very late but still feel as surprised on the rarest of the rare concurrence of circumstantial coincidences as I feel on around 2 decades of adhoc experience of a colleague, who finished his PhD around 1990 and to my understanding is a good and committed teacher.
In the present context of the existing objective realities, I stand with the long serving adhoc teachers as for them, as I have said before, for them, it is not the question of  getting but losing the job, also we the permanents are no Socrates either,  with an appeal to adhocs (with additional appeal to not taking it personally) to focus on work and not on pleasing one or the various groups of seniors. Some mechanism must be evolved to stop the system of prolonged adhocism.

DU 33(Adhoc)

Most of the colleges, as it appears, are going to reappoint the adhocs ho worked till the last day of the last session, those colleges which are not doing so must be pressurized by DUTA, so that they'd get the summer salary but the regular interviews should be held at the earliest possible. Prolonged adhocism is not only continuous is cause of anxiety to adhocs but in most cases makes formal interviews farcical, I too support priority to the incumbent, at least on compassionate ground  and also as we, the permanents, are not the Socrates, either.  The priority should be given by way of according them parity with others in the interview despite the inequality accruing to them through experience that must have, as I have said earlier elsewhere, helped them improve their articulation/communication/expression skills and knowledge of the subject. Appointment of one wrong person as a teacher is not only injustice to many generations of the students but also to the academic atmosphere.

नारी विमर्श 4

Sudha Raje  बगावत के लिए लड़कियों का गिरोह नहींट  बल्कि जनपक्षीय नारी चेतना से लैस, लड़कियों का हिरावल दस्ता बनाना है जो नारीवादी प्रज्ञा और दावेदारी को अभियान को और पैना करके सांस्कृतिक संत्रास की निरंतरता से मर्दवादी बर्बरता और इसकी जड़ मर्दवादी विचारधारा को जलाकर खाक करदे.

उमा, मैं तुम्हारी भावनाओं और स्वाभाविक उत्तेजना की कद्र करता हूं, युवाओं में इसी उत्तेजना की कमी चिंता का विषय है. सार्वजनिक विमर्श में पॉलिमिक्स और रेटॉरिक्स की भी अपनी महत्ता है. मैं लगातार अच्छी औरत की मूर्तियां तोड़ने की गुहार लगाता रहता हूं और औरत को जिस्न सलधझने वाली मर्दवादी विचारधारा के दुर्ग पर सांस्कृतिक संत्रास की बमबारी की निरंतरता की हिमायत करता हूं. यहां मत जाओ ये न करो की वर्जनाओं की धज्जियां उड़ाओ क्योंकि ये सड़के-रातें आप की हैं, बलात्कारी नरपिशाचों के बाप की नहीं. मेरा सिर्फ आग्रह है कि वस्तुगत यथास्थिति को ऐतिहासिक  भौतिकवादी समझ से बदलने की जरूरत है. जनवादी जनचेतना. गर्व है तुम्हारी निडर अभिव्यक्ति पर. 

Saturday, July 19, 2014

DU 32

Satya Narayan Sharma जवानी एक अवधारणा है जो उम्र की मोहताज नहीं होती (दिल बहलाने को ग़ालिब खयाल अच्छा है) वैसे ही जैसे बुढ़ापा. दिल जज्बातों के ज्वालामुखी की ज्वाला की जगह युवक-युवतियों में शह की तरल मुसाहिदी देख बुढ़ापा सहम जाता होगा. दर्द-ए-मुहब्बत एक अंतःविरोधाभासी शगूफा है हुस्न के जलवे के ग़ज़लगो और माशूक के जुल्फों में फंसे शायरों का. नस्ल-ए-आदम की आशिकी का एक ही रिवाज़ है -- सुकून-ए-मुहब्बत. ग़म-ए-जुदाई एक हिस्सा है सुकून-ए-मुहब्बत का. हा हा.  Siddharth Kanoujia इस तुकबंदी में कथन में बेईमानी से बचने के लिए "हर" शब्द बाद में जोड़ दिया. हे हे. वैसे हर चुंबन पहला ही लगता है.

Friday, July 18, 2014

क्षणिकाएं 28 (491-500)



491
संघी जमाती भाई भाई, देश तोड़ने निकले थे साथ
बुलंद हुए हौसले इनके, सिर पर था अंग्रेजी हाथ
लड़ते हैं ये नूरा कुश्ती, देते दो मुल्कों को मात
मॉफ करो हे पाठक भाई, है अब तीन मुल्क की बात
बनते बंदे अल्ला के खुद, करवाते भीषण रक्तपात
देख व्यापता लोगों में, जंग-ए-आज़ादी के जज़्बात
बौखला गये सब राजे-महराजे, बढ़ गया विक्टोरिया का रक्तचाप
आई उसके दिमाग मेंएक आजमाई तरकीब
 बना दो ज़िगरी दोस्तों को, एक-दूजे का जानी रक़ीब,
मिले उसे मुश्किल से यद्यपि, दो वफादार जुड़वे भाई
एक को थमाया शगूफा हिंदू राष्ट्र का, दूजे को नारा-ए-निज़ाम-ए-इलाही
रोक नहीं सके थे अंग्रेज बहादुर, आवामी जंग-ए-आज़ादी का उफान
खड़ा करवा दिया मगर. फिरकापरस्ती का हैवानी तूफान
मार दिया इंसानों ने, दो लाख से ज्यादा इंसान
समझ नहीं पाता यह कवि, क्या इससे भी बर्बर होते हैवान?
नापाक किए थे दरिंदे-मर्दों ने, कितनी ही मां-बहनों के दामन
तोड़ दिया था रत्ती-रत्ती, इंसानियत के सारे चिलमन
बांटा नहीं सिर्फ भूगोल, इतिहास भी इनने बांट दिया
एक से बने तीन मुल्कों को, फिरकापरस्ती का सौगात दिया
जब भी मचता है इन मुल्कों में, फिरकापरस्ती का चीत्कार
स्थायी भाव होता है उनका, महिलाओं का सामूहिक बलात्कार
तोड़ना ही है खूनी पंजा, सांप्रदायिकता के विचार का
मानवता के विरुद्धदानवी अत्याचार का
वैसे मैं जानता हूं, इनके दिल का यह राज
मज़हब महज मुखड़ा है, मक्सद है तख्त-ओ-ताज़
बेच सकें थैलीशाहों को जिससे, ये मुल्क और समाज
दिखाते हैं आवाम को, खाली-पीली हेकड़ी
करते हैं हक़ीकत में, अमरीका की चाकरी
छिपकर ही नहीं, खुलकर भी दिखाते हैं वफादारी
अंबानी की ही नहीं, वालमार्ट की भी करते तामीरदारी
आइए हम मिलकर, मुल्क के लोगों को जगायें
इस मुल्क की धरती से, फिरकापरस्ती का भूत भगायें
जागेगा जिस दिन तंद्रा से, इस देश का आवाम
सांप्रदायिक साम्राज्यवाद का, कर देगा काम-तमाम
(ईमिः14.07.2014)
492
आज भी चुभता है एहसास हर पहले चुंबन का
भूलता नहीं अनुभव मासूम दिलों के स्पंदन का
(ईमिः14.07.2014)
493
भारत रत्न है आपका, निशान-ए-पाकिस्तान भी
हैं अब दोनों ही निशानी अमरीकी मुसाहिदी की  
शिक्षिका के गुप्तांग में घुसेड़ता है जो पत्थर
भारत रत्नों से होता सुशोभित वह अफ्सर
निशान-ए-पाकिस्तान होता है उसके संग
इंसानियत पर करता जो ऐलान-ए-जंग
(ईमिः14.07.2014)
494
लफंगों की छेड़खानी तो समझ आती है, चरित्र प्रमाणपत्र देने लगें, ये तो हद है
बजरंगियों की उत्पात समझ आती है, वे कलम चलाने लगें, ये तो हद है
(ईमिः15.07.2014)
495
यह जंग नहीं जनसंहार है
वैसा ही जैसा हुआ था जर्मनी में, यहूदी बच्चों को साथ
झोंक दिये थे जब लाखों इंसान, हिटलर के रणबांकुरों ने
गैस की भट्ठियों में , मरने को घुट-घुट कर
जार जार कर दिया था दिल, सैलाब-ए-अश्क की उदासी ने.

यह जंग नहीं जनसंहार है
वैसा ही जैसा हो रहा है फिलिस्तीन में, फिलिस्तीनी बच्चों के साथ
अमरीकी शह के अहंकार की नेतानयाहू की मिशाइलों की बारिश में
घुट घुट कर मरते क्षत-विक्षत होते मासूम, नहीं जानते थे राज्य का चरित्र
या आतंकवाद की परिभाषा, न ही बम बनाने का फार्मूला
जार जार हो रहा है दिल, सैलाब-ए-अश्क की उदासी में.
यह जंग नहीं जनसंहार है
नाज़ी शिविरों से निकले यहूदी बच्चे, बना इज्रायल तो जवान हो गये
और बनाने लगे वैसे ही यातना शिविर, फिलिस्तीनी बच्चों के लिए
जैसा नाज़ियों ने बनाया था उनके लिए, और रंगने लगे अपने ही रक्त से हाथ
चलते हुए हिटलर के पदचिन्हों पर
घुट रहा है इतिहास और चरमरा रहा भूगोल, इंसानियत पर बमबारी से
जार जार हो चुका है दिल, सैलाब-ए-अश्क के सूख जाने से.

यह जंग नहीं जनसंहार है
उठ्ठेंगे अब एक साथ , यहूदी और फिलिस्तानी बच्चे
हिटलर के गैस चैंबरों, और मिसाइलमय गाज़ा के खंडहरों की
अपनी अपनी कब्रों से
 ये जवान बच्चे सीखेंगे मिसाइल का फार्मूला, और देंगे ईंट का दवाब पत्थर से
कायम है ग़र बल से गुलामी, लाज़िम है बल से उसका अंत
बाग बाग होगा तब दिल
इंसानियत की हसीन दुनिया के, सपनों के खुशगवार सैलाब-ए-अश्क में.
(ईमिः15.07.2014)
497
दिख ही जाता है मुखौटा और उसके पीछे छिपा असल चेहरा
सजग होते हैं जब विवेक-चक्षु
अच्छे लोग दिखते हैं वही जो होते हैं नहीं खर्चते ऊर्जा
दिखने में वो जो वे नहीं होते और कहलाते हैं अक्सर शिष्टों में अशिष्ट
परवाह नहीं होती उन्हें इस ठप्पे की
भारी पड़ता है गुमां नेकी का, अशिष्टता की बदनामी पर
जो अच्छा होता है, वह जानता है अच्छाई का मूल मंत्र
कि अच्छा करने से अच्छा बनता है, करता जाता है अच्छा
और बनता जाता है और अच्छा
वैसे तो वे भी जानते हैं यह मूलमंत्र, जो अच्छे नहीं होते
और इसीलिए करते हैं कोशिस वह दिखने की जो होते नहीं वे
लगाते जाते हैं मुखौटों पर मुखौटे, बुनते जाते हैं भेदों पर भेद
और फंसते जाते हैं खुद के बुने मकड़जाल में
लेकिन सक्षम है इंसान तोड़ने में कोई भी मकड़जाल
खोज सकता है रेगिस्तान में मोती, और निकाल सकता है पत्थर से पानी
(ईमिः15.07.2014)
498
बुरे लोग ही नाटक करते हैं अच्छे होने का
अच्छे लोग करते नहीं नाटक दिखने का वह
जो वे होते नहीं  वे
इसीलिए अच्छे होते हैं अच्छे लोग.
(ईमिः15.07.20140
499
भूल जाओ रटी-रटाई, नाना-दादाकी सुनी-सुनाई सीता-सावित्री-अनसूया की आदिम कहानियां
मिसालें हैं जो अनुनयन-अनुगमन-अनुशरण की, कुंद करती हैं नारी प्रज्ञा-पहल-आज़ाद-उन्नयन
बुनती हैं सती-सदाचार-आज्ञापालन का जाल, बताती हैं औरत को जूती-चेरी-भोग्या-पूज्या
आधी आबादी को अपंग बनाने का कमाल, रोकूंगा नहीं बच्चों को पढ़ने से ये आयतें
नहीं चूकूंगा देने से तटस्थ पठन की हिदायतें ,लिखी जा रही हैं अब नई कहानियां
आओ हम भी लिखें मलाला-मैत्रेयी-सिमन द बुऑओं की
हैं जो विवेक-अंतरात्मा से लैस  हाड़-मांस की संपूर्ण इंसान
मालिक हैं वे दिल की अपने कर सकती हैं मनचाहा प्यार
अब अगर कोई अज़ीज छाया  करना चाहे चुम्बनों की बौछार
भर लो आलिंगन में उसे करो उन्मुक्त प्यार
लड़ लेंगे उसके बाद मुक़दमा  सांस्कृतिक अपराध का
तुम्हारे अकाट्य हक़ीकी तर्कों से  लगेगा सांस्कृतिक सदमा
संस्कृति की अदालत के जजों को याद आंयेंगे उन्हें प्राचीन काल के सुकरात
लेकिन इतिहास दुहराता नहीं  प्रतिध्वनित होता है.
(अतुकांत के प्रयास में ज्यादा अतुकांत हो गया)
(ईमिः 16.07.2014)
500
नहीं जानता होती है कैसी आत्मा हिरण सी
तनती है भृकुटि तो
 चकित हिरणी सी लगती हैं तुम्हारी आंखें
(ईमिः16.07.2014)
501



















क्षणिकाएं 27 (481-90)



481
नेता की भितरघात तो समझ आती है
खुली खुशामद करे, ये तो हद है
बदनामी छिपाना तो समझ आता है
उसका डंका कोई पीटे ये तो हद है
शिक्षक का न पढ़ाना समझ आता है
कुज्ञान की फसल उगाये ये तो हद है
मालिक की वफादारी तो समझ आती है
अपना ही गांव जला दे, ये तो हद है
मालिक की मुसीबत से मायूस होना समझ आता है
उसके लिए जान दे दे ये तो हद है
ख़ुदगर्जी में सर नवाना तो समझ आता है
कोई साष्टांग करे ये तो हद है
(ईमिः24.06.2014)
482

अगली मंजिल
मंजिलें और भी हैं इस मंजिल से आगे
जोड़ना है इन सभी मंजिलों के धागे
रहती अगली मंजिल की सदा हसरत
बढ़ते ही जाने की है मेरी फितरत
एथेंस में करता सुकरात सी चहल
कारों के बेदर्द शहर में गाता ग़ज़ल
हमसफर हाजी कहते मुझे बुतपरस्त
खैय्याम कहते हूं हाजी जबरदस्त
लड़ते बढ़ते बस चलता जाता हूं
पहुंच मंजिल पे थोड़ा सुस्ताता हूं
खत्म नहीं होता सफर पाकर मंजिल
अगली फिर अगली का करता है दिल
(ईमिः 26.06.2014)
483
नहीं है गरीब की हंसी निशानी उसके चेहरे पर दौलत की
बयान-ए-यक़ीन है ये नामाकूल में जीने की कुव्वत की
यह हंसी खोजती है नामाकूल के माकूल में तब्दीली की राह
इस हंसी के हवाले से अमीर करता जन जन को गुमराह
कहता फिरता है नहीं गरीब को धनदौलत की चाह
गरीब की इस हंसी में छिपी है एक और संगीन बात
समझने लगा है वह अब अमीरों की फरेबी खुराफात
यह हंसी भविष्यवाणी है छेड़ेगा वह फैसलाकुन जंग गरीबी के खिलाफ
श्रम की शर्त पर कर देगा परजीवी अमीरों को मॉफ
(ईमिः26.06.2014)
484
हम तो लेते तलाश रेगिस्तान में भी मोती
दुस्साहसी मिशाल की ग़र बात न होती
(ईमिः27.06.2014)
485
जब तुम बोलती हो इंकिलाब
बौखला जाता है मर्दवाद
(ईमिः29.06.2014)
486
ग़ाफिल की एक ग़ज़ल परः
शुक्रिया किस बात का गाफिल,. ये तो है खानाबदोश महफिल
हवा ने दरवाजा खटकाया होगा, लगा कोई मेहमान आया होगा
देगा क्यों कोई आपको आवाज़, है जो माशूकी जल्वे का मोहताज
सराब-ओ-सबाब पर फन वारा, बनना चाहते हो मशीहा आवारा
रेगिस्तान में मोती की तलाश, करेगी ही मन-मानस को हताश
चाहते हो ग़र मोती तलाशना, सीखना होगा गहरे समुद्र में तैरना
शराब-ओ-सबाब पर है ग़ज़ल वारी, क्यों करेंगे लोग आपकी ग़मखा़री
चाहते हैं गर लोग दें आपको आवाज़, ग़म-ए-जहां से बुनिए ग़ज़ल की साज
(हा हा ग़ाफिल साहब, दिल पर न लें, गफ़लत में स्वस्फूर्त तुकबंदी हो गयी)
(ईमिः 29.06.2014)
487
पल पल बदलती हो तुम बार बार
बदले स्वरूपों का मगर साश्वत है सार
चकित हिरणी सी आंखों में असीम प्यार
भले ही दिखें करती तीक्ष्ण सरवार
पक्व-बिंब से अधरों का गतिविज्ञान
बिखेरता प्रासंगिक गूढ़ मुस्कान
यहीं तक रोकता हूं फिलहाल कलम
आगे का वर्णन अभी बना रहे भरम
(ईमिः30.06.2014)
488
चाय बागान का अहोभाग्य, रेणु से मुलाकात का सौभाग्य
यह उन्मुक्त ओ उन्मत्त मुस्कान, प्रकृति को करती और छटावान
नहीं गुमान प्रकृति पर विजय का, हर्ष है साथ उसके सामंजस्य का
यही रहा है सदा से कुदरती नाता, सदैव रही है प्रकृति जीवन दाता
निजाम-ए-ज़र ने बदला विधान, छेड़ दिया है प्रकृति पर घमासान
किया कुदरती रिश्ते को लहूलुहान,
 बनाता है उस पर धन की सीढ़ियां, भाड़ में जायें अगली पीढ़ियां,
होंगी वे भी तो धरती की ही संतान, उन्हें भी चाहिए प्रकृति का वरदान,
 आइए लेते हैं आज यह संकल्प, ढूंढ़ेंगे प्रकृति के विनाश का विकल्प
(ईमिः01.07.2014)
489
तोड़ने होंगे प्रतिबंधों के फाटक, करना है ग़र नाइंसाफी की मुख़ालाफत
तोड़ने होंगे चंगेजों के तेग और चंपुओं के खंज़र, करनी है ग़र तालीम की आज़ादी की हिफ़ाजत
लगाने होगे एकता के बुलंद विप्लवी नारे, करना है ग़र परिसर मुक्त तुगलकी फरमानों से
तोड़ना ही पड़ेगा शाही वर्जनाए, मिटाना है ग़र निशान जहालत की ताकत का,
आइए खंड-खंड कर दें अनुशासन का पाखंड, बंद करे फाटक के बाहर से विरोध,
और करें परिसर में प्रवेश, देने मुक्ति का संदेश
नहीं है रखवाले की बपौती ये परिसर, हक़ है शिक्षक-छात्रों का इस पर
(ईमिः04.07.2014)
490
नहीं होता जीने से अलहदा ज़िंदगी का मकसद
मुकम्मल मकसद है जीना एक सार्थक ज़िंदगी
साथ साथ चलते हैं बाकी सहायक मकसद
अनाहूत स्वयंभू परिणामों की तरह
(ईमिः06.07.2014)