Sunday, May 30, 2021

शिक्षा और ज्ञान 308 (चिकित्सा पद्धति)

 यह सही है कि स्वतंत्र भारत में औपनिवेशिक रवायत को जारी रखते हुए आधुनिक (एल्योपैथी) चिकित्सा पद्धति जितना पारंपरिक (आयुर्वेद, यूनानी) चिकित्सा पद्धति में शोध को प्रोत्साहित नहीं किया गया, जबकि चीन में क्रांति के बाद पारंपरिक और आधुनिक शिक्षा पद्धतियों को समन्वित किया गया और एक दशक में चीन की चिकित्सा सुविधा की गणना दुनिया के सर्वोत्तम चिकित्सा सुविधाओं में होने लगी। 1970 तक ग्रामीण इलाकों में हर जगह ज्यादा-से-ज्यादा एक किमी पर प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्र स्थापित हो गए थे। यहां आयुर्वेद के शिक्षण प्रतिष्ठानों के डॉक्टरों और प्रोफेसरों ने भी पद्धति के आधुनिककरण में उत्साह नहीं दिखाया। ज्यादातर आयुर्वेद की डिग्री वाले डॉक्टर एल्योपैथी की दवा-इंजेक्सन देते हैं। जैसे गुरु का मंत्र गुप्त रखा जाता है वैसे ही जाने-माने वैद्य अपना ज्ञान अपने में समेटे रहे जब कि बांटने से ज्ञान बढ़ता है। किशोरावस्था में मैंने तो बनारस के मशहूर सीताराम वैद्य द्वारा टिटनेस के इलाज का चमत्कार देखा है। आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार के लिए उस स्तर पर भारतीयता के नामपर सियासी धंधा करने वालों ने भी उस स्तर की कोई पहल नहीं की जिस स्तर पर धर्मांधता और सांप्रदायिक नफरत के प्रचार-प्रसार की। जनता सरकार (1977-80) ने आयुर्वेद के डॉक्टरों को एल्योपैथी के डॉक्टरों के समतुल्य दर्जा और वेतन का प्रवधान बनाया, लेकिन ढाक के तीन पत्ते ही रह गए। रामदेव जैसे क्रोनी कैपिटलिस्ट आयुर्वेद की प्रगति में नहीं उसे धर्मांधता का जामा पहनाकर सरकार की मदद से देश के कोने-कोने में जमीनें कब्जाने और धंधा बढ़ाने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं।

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