प्रदूषणविहीन अंतरात्मा हमेशा सही रास्ता दिखाती है। दरअसल व्यक्तित्व का चारित्रिक/ नैतिक निर्माण विवेक और अंतरात्मा के द्वंद्वात्मक योग से होता है। किसी वर्ग (विभाजित) समाज में व्यक्तित्व स्व से स्वार्थबोध और स्व के न्यायबोध (परमार्थबोध) में विभक्त होता है। अप्रदूषित अंतरात्मा विवेक को निर्देश/ परामर्श देती है कि सुख की प्राप्ति स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थ बोध को तरजीह देने से होती है। प्रदूषित अंतरात्मी इसका उल्टा निर्देश/ परामर्श देती है। इसलिए हमें अंतरात्मा को प्रदूषणमुक्त रखने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। वास्तविक सुख परमार्थ में है, स्वार्थ का सुख भ्रम (illusion) होता है। सादर।
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