एक मित्र ने अपने छात्र जीवन के एक सीनियर के खाना बनाने वाली की कहानी शेयर किया जिसने उनकी जूठी प्लेट माजने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह पंडित हैं उनका काम खाना बनाना है, बर्तन माजना नहीं, उस पर:
इस पोस्ट की समीक्षा में कई दार्शनिक बातों पर बातें की जा सकती हैं। लेकिन लंबा लेख लिखने का समय और धैर्य नहीं है। लेकिन इतना ही कहना चाहूंगा कि ज्यादातर मुख्यधारा दार्शनिक विचारधाराएं श्रम तथा श्रमिक को अवमाननापूर्ण हेय दृष्टि से देखता है, जब कि मानव इतिहास के विभिन्न चरणों में श्रम ही निरंतरता की कड़ी है। अपनी आजाविका के उत्पादन एवं पुनरुत्पादन यानि श्रम करने की योग्यता की विशिष्टता से मनुष्य ने स्वयं को पशुकुल से अलग किया। मानव संस्कृति की प्रगति का इतिहासमूलतः श्रम के साधनों (उपकरणों) के विकास का इतिहास है। समतामूलक आदिम उत्पादन पद्धति के अंत के साथ भरण-पोषण की व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन की व्यवस्था में बदल गयी तथा समाज परजीवी तथा श्रमजीवी वर्गों में बंट गया। अतिरिक्त उत्पादन पर कब्जा करने वाला परजीवी वर्ग शासक वर्ग बना तथा उसी वर्ग से आने वाले दार्शनिकों ने श्रम को अवमानना के काम के रूप में चित्रित किया।
वर्णाश्रम व्यवस्था में श्रमजीवियों (कारीगर तथा मजदूर) की विभिन्न कोटियां शूद्र वर्ण में समाहित हैं। पाश्चात्य दर्शन में भी रूसो को अपवाद को छोड़कर श्रम को अवमानना की बात के रूप में हेय दृष्टि से वर्णित किया गया है। श्रमिकों के जैविक बुद्धिजीवी कार्ल मार्क्स श्रम को जीवन की आत्मा मानते हैं।
इस कहानी की एक बात तो यह कि खाना बनाने की संविदा की कर्मचारी से जूठा बर्तन धुलवाना गलत है। वैसे आदर्श रूप से सभ्यता का तकाजा तो यह है कि सबको अपनी जूठी प्लेट खुद धोना चाहिए। घर जाने पर गांव में जब भी अपनी थाली धोकर रखता हूं तो सबकी आपत्ति का सामना करना पड़ता है। घर में बर्तन धोने वाला/वाली भी हो तो जूठा पानी से धोकर सिंक में रखना चाहिए। विभिन्न प्रकार के श्रम को भी श्रेणीबद्ध किया गया है, बर्तन धोने को खाना बनाने से छोटा काम माना जाता है। मुझे तोरसोई के कामों में बर्तन धोना सबसे आसान काम लगता है।
दूसरी बात यह कि क्या कहानी तब भी उतनी ही मार्मिक होती यदि खाना बनाने वाली वह स्त्री 'पंडित' नहीं होतीं? क्योंकि वह यह कहने के साथ कि उनका काम खाना बनाना है, बर्तन मांजना नहीं, वे पंडित हैं। यहां जोर पंडित पर दिया गया है।
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