Sunday, May 16, 2021

मार्क्सवाद 244 (जातिवाद)

 यह वक्तव्य हास्यास्पद लगता है कि आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास के चलते जातीय उत्पीड़न खत्म हो गया होता। मेरे छात्र जीवन में जब आरक्षण प्रभावी नहीं था तो जातीय भेदभाव अपने वीभत्सतम रूप में था। आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास समाज की के बड़े हिस्से की प्रतिभा के योगदान से वंचित रह जाता, जैसे मर्दवादी वंचनाओं के चलते स्त्रियों की अकूत प्रतिभा हजारों साल घर की चारदीवारी में कैद रही। अर्थ ही मूल है, आर्थिक रूप से सशक्त तपकों की सामाजिक राजनैतिक सशक्तीकरण की आकांक्षा जगी, जिससे जातिवादी भेदभाव की व्यवस्था के लाभार्थी प्रतिक्रिया में बौखला उठे और यह सामाजिक तनाव उसी का परिणाम है। वैसे महेंद्र तो अमेरिका में रहते हैं और शायदआरक्षण की तथाकथित मलाई के बिना ही कुछ कर रहे होंगे। किसी सवर्ण का आरक्षण विरोध का जज्बा उसके स्वार्थबोध के परमार्थबोध पर तरजीह देने के चलते होता है। यदि वह परमार्थबोध को स्वार्थबोध परल तरजीह दे तो उसकी आरक्षणविरोध की सनक कम होगी। यह वक्तव्य हास्यास्पद लगता है कि आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास के चलते जातीय उत्पीड़न खत्म हो गया होता। मेरे छात्र जीवन में जब आरक्षण प्रभावी नहीं था तो जातीय भेदभाव अपने वीभत्सतम रूप में था। आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास समाज की के बड़े हिस्से की प्रतिभा के योगदान से वंचित रह जाता, जैसे मर्दवादी वंचनाओं के चलते स्त्रियों की अकूत प्रतिभा हजारों साल घर की चारदीवारी में कैद रही। अर्थ ही मूल है, आर्थिक रूप से सशक्त तपकों की सामाजिक राजनैतिक सशक्तीकरण की आकांक्षा जगी, जिससे जातिवादी भेदभाव की व्यवस्था के लाभार्थी प्रतिक्रिया में बौखला उठे और यह सामाजिक तनाव उसी का परिणाम है। वैसे महेंद्र तो अमेरिका में रहते हैं और शायदआरक्षण की तथाकथित मलाई के बिना ही कुछ कर रहे होंगे। किसी सवर्ण का आरक्षण विरोध का जज्बा उसके स्वार्थबोध के परमार्थबोध पर तरजीह देने के चलते होता है। यदि वह परमार्थबोध को स्वार्थबोध परल तरजीह दे तो उसकी आरक्षणविरोध की सनक कम होगी।

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