सांप्रदायिकता हर तरह की बुरी होती है लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की बात एक मिथक है। तुष्टीकरण की बात सच होती तो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में अधिक नहीं तो अपनी आबादी के समानुपाती तो होता। लेकिन ऐसा नहीं है। दिल्ली विवि के शिक्षकों में मुसलमानों की संख्या मुश्किल से 1-2 प्रतिशत होगी। चुनावी जनतंत्र में तुष्टीकरण सदा बहुसंख्यक समुदाय का होता है। 1984 के बाद राजनैतिक नौसिखिए राजीवगांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने, हिंदू तुष्टीकरण के चक्कर में प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता की राजनीति में फंसकर आत्मघात कर लिया। 1980 में आरएसएस की सांप्रदायिकता रक्षात्मक मोड में थी। जनता पार्टी के विघटन के बाद भाजपा का गठन में अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद को अपना वैचारिक आधार घोषित किया। 1984 में राजीव के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व संसदीय सफलता से इनका माथा ठनका। कि 50-60 साल से हिंदू-मुसलमान वे कर रहे हैं, दंगे वे करवाते आ रहे हैं और कांग्रेस ने 2000 सिख मार कर बाजी मार ली। फिर संघ परिवार ने राममंदिर का मुद्दा उठाया। चिदंबरम् जैसे मूर्खों की सलाह पर राजीव गांधी सरकार ने प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता की नीति अपनाया। चिदंबरम् मुझे कांग्रेस में आरएसएस का एजेंट लगता था। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा दिया। रामलला चबूतरे के लिए जमीन का अधिग्रहण किया। मेरठ, मलियाना, हाशिमपुरा प्रायोजित किया। दुश्मन से उसी के मैदान में उसी के हथियार से लड़ना चाहा। हार निश्चित थी। अडवाणी की रथयात्रा के बाद उप्र से सांप्रदायिकता की फसल काटना शुरू किया और 2014 तक दिल्ली पर काबिज हो गया। हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकताएं पूरक हैं, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की बात मिथकीय शगूफा है।
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