Thursday, May 6, 2021

मार्क्सवाद 242 (सीपीएम)

 Bhagwan Prasad Sinha आपकी इन बातों से भी सहमत हूं। वर्गादार आंदोलन और धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने ही वह समर्थन आधार प्रदान किया जिससे पार्टी 1978 से 2006 तक लगातार जीतती रही। लेकिन सत्ता में रहते हुए इसने शासकवर्ग की अन्य पार्टियों की प्रवृत्तियां अख्तियार कर चुनाव को क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के मंच के रूप में इस्तेमाल करने 1950 के दशक के चुनाव में जाने के तर्क को दरकिनार कर दिया और धीरे धीरे इसमें और अन्य चुनावी पार्टियों का गुणात्मक फर्क धुंधलाता गया। कॉमिंटर्न के निर्देश में बनी-बढ़ी अन्य देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह यहां की कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने संख्याबल को जनबल में तब्दील करने में नाकाम रहीं। वैसे 1996 में ज्योति बसु कतो प्रधानमंत्री न बनने देने के निर्णय का मैं विरोधी था और सोमनाथ चटर्जी के साथ पार्टी में दुर्व्यवहार का भी। लेकिन ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने से लगता नहीं बहुत फर्क पड़ता।

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