Raj K Mishra हिंदू कॉलेज के नाम में ही हिंदू है काम में वह सरकार पोषित दिल्ली विश्वविद्यालय का कॉलेज है। मेरा नाम ईश है, लेकिन मेरे अंदर ईश के किसी गुण की तो बात ही छोड़िए, मैं तो ईश के अस्तित्व को ही नकारने वाला एक प्रामाणिक नास्तिक हूं। अगले महीने 66 साल का हो जाऊंगा तो बुढ़ापे में हारे को हरिनाम की कहावत को चरितार्थ करते, इस जीवन में ईश्वर की शरण में जाने की गुंजाइश कम ही दिखती है। मैंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी इंटरविव दिया था, लेकिन उच्चशिक्षा में मठाधीशी की प्रथा के चलते इंटरविव से नौकरी नहीं मिलती। जामिया मिलिया इस्लामिया में तो इलाहाबाद विवि की ही तरह इंटरविव इतना अच्छा हुआ था कि उसी तरह नौकरी मिलने की खुशफहमी हो गयी थी। मैंने यह नहीं कहा कि हिंदू कुछ नहीं होता बल्कि हिंदू कोई नहीं होता। बाभन, ठाकुर, अहिर, .......... पिराडिमाकार जातियों का समुच्चय हिंदू होता है। नामों का इतिहास होता है। 1899 में चावड़ी बाजार में किसी ईशाई मिशनरी ने सेंट स्टीफेंल कॉलेज खोला उसकी प्रतिक्रिया में एक राष्ट्रवादी व्यापारी लाला श्रीराम गुड़वाले ने चंदा करके उसीके सामने हिंदू कॉलेज खोला। दिल्ली विवि 1925 में शुरू हुआ ये कॉलेज तब लाहौर विवि से संबद्ध थे। बाद में दोनों ही कश्मीरी गेट आ गए और आजादी के बाद दोनों आमने सामने अपनी मौजूदा जगहों पर हैं। पूंजीवाद में हम सभी उपलब्ध खरीददार को अपनी श्रमशक्ति बेचने और एलीनेडेड श्रम करने को अभिशप्त हैं, क्योंकि श्रमिक के पास श्रमशक्ति होती है श्रम के साधन नहीं। शिक्षक की नौकरी एक ऐसी नौकरी है जिसमें एलीनेसन खत्म तो नहीं कम कियाजा सकता है। खत्म तो पूंजीवाद के खात्मे के साथ ही होगा, क्योंकि एलीनेसन भी बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की तरह पूंजीवाद का नीतिगत दोष नहीं बल्कि अंतर्निहित प्रवृत्ति (immanently innate attribute) है। 1984 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लगभग डेढ़ घंटा लंबा संतोषजनक इंटरविव हुआ था, 6 पद थे मेरा नाम पैनल में सातवें स्थान पर था। छठें पर होता तो मेरा सौभाग्य होता और आपको यह सवाल पूछने का मौका न मिलता कि मैंने हिंदू कॉलेज में पढ़ाते हुए उसके नाम से असहजता क्यों नहीं महसूस किया। वैसे आपने सही याद दिलाया कि पेट का सवाल नाक के सवाल से पहले आता है।मार्क्स ने भी कहा है, अर्थ ही मूल है।
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