सालगिरह की एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाब:
जी वयस्कता या विवाह की वैधानिक उम्र के लिहाज से हमारा बालविवाह था। उस समय भी हमें यह भान था कि बाल विवाह एक सामाजिक कुरीति है। मैं इंटर की परीक्षा दिया था लेकिन आगे की पढ़ाई भी करनी थी। कहीं लिखा है कि हमारा विरोध क्यों असफल हो गया। लेकिन जब विवाह के लिए राजी हो गए, भले ही under protest तो उसे निभाना भी था।
हमने विवाह के समय ही शादी निभाने का फैसला कर लिया था, इपिक्यूरियन दर्शन का प्रकृतिवाद बाद में पढ़ा कि प्रकृतिक नियमों (इस मामले में सामाजिक उत्तरदायित्व) और इच्छाओं की स्वतंत्रता में समन्वय स्थापित करना चाहिए। मेरी जब भी किसी लड़की से घनिष्ठता की गुंजाइश होती तो संदर्भ निर्मित कर उसे अपने वैवाहिक स्थिति और उसे निभाने के फैसले से अवगत करा देता था जिससे उसे भी पता रहे कि प्रेम की गुंजाइश में शादी की गुंजाइश नहीं है। इलाहाबाद में एक बहुत अच्छी दोस्त थी आशिकी की घनिष्ठता की गुंजाइश की मुझे कोई आशंका नहीं थी, इसलिए शादी की बात उसे नहीं बताया था। शादी के तीसरे साल जब गौना आया तो उसे लड्डू का डिब्बा दिया। उसे गौना का मतलब नहीं मालुम था बताने पर बहुत भला-बुरा सुनाया और इतना नाराज हुई कि वह हमारी आखिरी मुलाकात साबित हुई। गौने को सेकंड मैरेज कहने का तुक मुझे भी नहीं समझ में आता।
जेएनयू में पढ़ते हुए एक बार एक क्रांतिकारी संगठन की एक स्त्रीवादी कॉमरेड को मुझसे कुछ संगठनात्मक राजनैतिक डील करनी थी। उसके लिए उन्होंने भावनात्मक रूट पकड़ा। मैं हॉस्टल में married bachelor की तरह रहता था। उन्होंने अंदाज लगाया होगा कि पत्नी से अलग होना चाहता हूंगा, कमजोर नस समझ हाथ रख दिया, "Ish, your is kind of child marriage. You can easily get divorce". उनके स्त्रीवाद पर मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, "Com, what is your interest. I have never flirted with or proposed you. In fact we have never shown any non-pollical interest towards each other. And what you are suggesting effectively means that if two people are victims of some regressive social custom, one co-victim should further victimize the more co-victim. And in patriarchy the woman is more co-victim. Great Marxist feminism!!!" झेंपकर सफाई देने लगीं कि मजाक कर रही थीं। खैर एक बात यहां साफ कर दूं कि मेरा नहीं सरोज जी का बड़प्पन है कि मेरे जैसे आवारा के साथ उन्होंने adjust किया। मेरे सभी स्त्री-पुरुष मित्र उनके प्रशंसक हैं।
मार्क्सवाद का एक प्रमुख सिद्धांत है, करनी-कथनी की एका (unity of theory and practice), जिसे मैं उसूलों को जीना (living the principles) कहता हूं। यदि आप पुरुषवादी व्यवस्था के अन्यायपूर्ण चरित्र को समझते हैं या यों कहें, यदि आप स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास करते हैं तो वह दादी-मां, पत्नी-बेटियों के साथ आपके व्यवहार में परिलक्षित होना चाहिए। आपके सिद्धांतों की असली परख तभी होती है जब वह आप पर लागू हों।1988 में जब मुझे दूसरी बेटी के पैदा होने की खबर मिली तो मेरी जेब में 10 रु. की नोट थी, लेकिन लगा कि यदि अभी बेटी पैदा होने का तुरंत उत्सव नहीं मनाया तो लोग कहेंगे कि बड़ा स्त्रीवादी बनता है, दूसरी बेटी पैदा होते ही दब गया! तुरंत बाइक स्टार्ट किया और 1 हजार उधार लेने एक दोस्त के ऑफिस पहुंच गया। उस समय 1000 काफी होता था। यह कहानी कहीं लिख चुका हूं, कभी शेयर करूंगा। लंबा कमेंट हल्के-फुल्के नोट पर खत्म करता हूं। जेएनयू में एक बार अपनी एक बहुत अच्छी दोस्त से मजाक में पूछा कि यदि लड़कपन में मेरी शादी न हुई होती तो वह मुझसे शादी करती? उसने पलट कर जवाबी सवाल किया तुमसे दुनिया की कौन लड़की शादी करती?
विभा मिश्रा समाज की मान्यताओं में इतना दोहरापन है कि बिना लाग-लपेट के कहा जाए सेक्स की सामाजिक स्वीकृति के लि विवाह किया जाता था, लेकिन शोशा ऐसा कि पति-पत्नी छुप कर मिलें। सबके सो जाने के बाद पति पत्नी के कमरे में जाए और सबके जगने के पहले बाहर। मैं सुबह चाय पीकर कमरे से निकलता था और रात को भोजन के बाद ही कमरे में चला जाता था तथा पत्नी को नाम (सरोज जी) से बुलाता था, यही हांव में कानाफूसी और तंज का विषय बन गया था। मुलाकात की पहली रात मैंने पत्नी को सरोज जी कहकर संबोधित किया तब से इसी संबोधन से बुलाने की आदत पड़ गयी।
ReplyDelete