यह सवाल ही बेमानी है कि समानता के अधिकार से स्त्री पुरुषों की तरह स्वच्छंद हो जाएगी। स्त्री की समानता के अधिकार पर आघात करनेकी बजाय पुरुषों के सुधार की जरूरत है। स्त्री पहले ही अवसर मिलने पर पढ़ाई-लिखाई कर ही रही है और एक शिक्षक के अनुभव से कह सकता हूं कि पुरुषों से बेहतर। वह हर क्षेत्र में मजदूरी भी कर ही रही है, तथाकथित पुरुषों के एकाधिकार समझे जाने वाले क्षेत्रों में भी। सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों में भी वह नेतृत्व की भूमिका निभा रही है। शोषण और निरकुंशता के विरुद्ध स्त्री-पुरुष का आपस में नहीं साझा संघर्ष है। दोनों को कदम से कदम मिलाकर मिलकर काम करने तथा कंधे-से-कंधा मिलाकर लड़ने की जरूरत है। संबंध जनतांत्रिक होंगे तो भावनात्मक शुद्धि-अशुद्धि के प्रश्न निरर्थक हो जाएंगे। जिसे समता के सुख का एक बार स्वाद लग जाता है उसे और कोई सुख उतना अच्छा नहीं लगता। इसीलिए सुखी जीवन के लिए पत्नी-बच्चों और यदि शिक्षक हैं तो छात्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध वांछनीय हैं।
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