एक मित्र ने कहा कि हमास और इज्रायल के अंतःसंबंध पर लिख कर वे अपनों में कलह नहीं फैलाना चाहते, उस पर:
अपने लोग कौन हैंं? मेरे लिए तो इंसाफ की जंग लड़ते दुनिया के सारे लोग अपने हैं और आवाम पर जुल्म करने वाले और उन्हें लूटने वाले सारे लोग दुश्मन। अमेरिका, यूरोप या दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद या हिंदुस्तान-पाकिस्तान में सांप्रदायिकता के विरुद्ध आवाज उठाने वाले लोग अपने हैं तथा नस्लवादी या सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले लोग दुश्मन। जीवन के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले फिलिस्तीनी युवा अपने हैं और उनपर साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी की शह पर नस्लवादी अतिक्रमण की कहर ढाने वाले दुश्मन। पाकिस्तानी या अमेरिकी मजदूर हमारे उतने ही अपने हैं, जितने हिंदुस्तानी मजदूर तथा मजदूरों का खून चूसने वाले अमेरिकी या पाकिस्तानी सरमाएदार उतने ही दुश्मन है जितने मजदूरों का खून चूसने वाले तथा सरकारी शह पर मुल्क लूटने वाले अंबानी-अडानी जैसे हिंदुस्तानी सरमाएदार।
1984 की एक घटना याद आ गयी। दिल्ली में सिखविरोधी सांप्रदायिक हिंसा का कहर पसरा था। पगड़ी दुश्मन की आसान पहचान थी। 'सिख होते ही ऐसे हैं', किस्म का वातावरण बना हुआ है। जो छवि आज मुसलमानों की है, वैसी ही सिखों की थी। जेएनयू में हमने सुना कि पास के आरकेपुरम् सेक्टर-4 में कुछ उपद्रवी सिखों पर हमला करने आ रहे हैं। उत्पातियों के पास उस सरकारी कॉलोनी में कौन घर सिखों के हैं की सही जानकारी की थी। हम लगभग 200-250 लोग कैंपस में इकट्ठा हुए और दंगा रोकने आरकेपुरम् की तरफ प्रस्थान किए। गेट तक पहुंचते-पहुंचते बाकी लोग 'कैंपस की सुरक्षा' के लिए पीछे रुक गए, हम 20-25 लोग आरकेपुरम् पहुंचे। तर्क और सच का हथियार हो तो 20-25 लोग भी लाठी, सरिया, कुल्हाड़ी, पेट्रोल और मिट्टी के तेल आदि हथियारों से लैश 200-300 उपद्रवियों के मंसूबे पस्त कर सकते हैं। विस्तार में न जाते हुए, निष्कर्ष यह कि माल का पूरी तरह तो नहीं लेकिन जान का नुक्सान पूरी तरह रोकने में हम सफल रहे। अफवाहों की दंगों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 1985 में एक पाक्षिक में मैंने 1984 के दंगों की अफवाहें और हकीकत पर एक पाक्षिक में एक लेख लिखा था, जिसे ढूंढ़ना तो मुश्किल होगा लेकिन कभी उन ससंस्मरणों को समय मिला तो लिखूंगा। 2017 में एक लेख लिखा था, '1984 के आइने में 2017' वह मेरे ब्लॉग में होगा, नीचे लिंक शेयर करूंगा। खैर भूमिका में टेक्स्ट छूट ही गया बात अपनों की हो रही थी। उसके पहले अफवाहों की छोटी सी बात एक दंगाई ने कहा कि पंजाब से आने वाली किसी गाड़ी से 100 हिंदुओं की सिर कटी लाशें तुगलकाहाद स्टेसन पर पड़ी हैं। मैंने तुरंत हवा में तीर चलाया कि पंजाब से दिल्ली तो 5 दिन से गाड़ियां ही नहीं आ रही हैं तो उसने आंखों देखी घटना को कानों सुनी कहकर टाल दिया।
अब असली मुद्दे पर आते हैं, अपनों वाले। वहां से लौटते हुए मुनिरका में किसी से बहस हो गयी, सइर पर पगड़ी न होने की पहचान से उसने कहा, 'जाओ अपने हो, छोड़ दे रहा हूं'। मैंने कहा, हम तुम्हारे जैसे आतताइयों के अपने नहीं हैं, लेकिन मॉबलिंटिंगके डर से वहां से निकल लिए। जो दंगों में शिरकत कर रहे थे वही नहीं सांप्रदायिक थे, उनके मूक समर्थक भी सांप्रदायिक थे।
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