Monday, May 24, 2021

मार्क्सवाद 301 (1984)

 1984 भारतीय राजनीति का एक निर्णायक विंदु साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख नरसंहार की पृष्ठभूमि में संजय गांधी की असामयिक मृत्यु से पैदा राजनैतिक निर्वात भरने कॉमर्सियल पाइलट से राजनीतिज्ञ बने राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व संसदीय जीत से चुनावी राजनीति में सांप्रदायिक चुनावी ध्रुवीकरण का प्रतिस्पर्धी दौर शुरू हुआ। कांग्रेस में हमेशा हिंदूवादी सांप्रदायिक प्रवृत्ति के गुट रहे। बालगंगाधर तिलक, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, राजेंद्र प्रसाद आदि उस श्रृंखला की कड़ियां हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध अंग्रेजों को कुछ दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी मुसलमानों द्वारा मुस्लिम लीग बनवाने का मसाला शुरू में कांग्रेस विरोध के रूप में ही मिला, बाद में उन्हें इस तरह के हिंदू तत्व भी मिले जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध हिंदू सभा और आरएसएस बनाया। आजादी के बाद वामपंथी आंदोलनों का प्रभाव तथा नेहरू के व्यक्तित्व व नेतृत्व के गुरुत्व के चलते ही ही था कि भारत राष्ट्र-राज्य की प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष बुनियाद रखी जा सकी। अनचाहे ही लंबी भूमिका हो गई, अब मुद्दे पर आते हैं।

रोटी बनाने के लिए कमेंट बीच में छोड़कर उठना पड़ गया था। आज बिल्कुल गोली तो नहींपेक्षाकृत गोली रोटियां बनी और सब फूलकर कुप्पा। रोटी लगभग गोली बन जाती है तो खुशी होती है और फूलकर कुप्पा हो जाे तो बहुत खुशी होती है।

ऊपर के कमेंट को आगे बड़ाते हुए --

1970 के दशक में, खासकर राजनीति में संजय गांधी के आगमन के बाद से आरएसएस और इसकी संसदीय शाखा भारतीय जनसंघ ने सामाजिक स्वीकार्यता के मकसद से आक्रामक सांप्रदायिकता छोड़कर रक्षात्मक सांप्रदायिकता का रवैया अपनाना शुरू कर दिया था। बिहार आंदोलन में जयप्रकाश नारायण ने आरएसएस और इसकी छात्र शाखा एबीवीपी को अपना प्रमख सहयोगी बनाकर अपने राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी राजनैतिक गलती की। इसके पहले लोहिया यही गलती 1960 के दशक में तत्कालीन जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय से कांग्रेस के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने का समझौता करके की थी, जिसकी परिणति कांग्रेस के बिघटित तत्वों, जनसंघ और समाजवादियों के गठजोड़ से 1967 की संविद सरकारों के गठन में हुई थी। बिहार आंदोलन से मिली समाजिक-राजनैतिक स्वीकार्यता आपातकाल के बाद जनता पार्टी के गठन में हुई जनसंघ जिसका प्रमुख घटक था। जनता पार्टी की सरकार में हिस्सेदारी के माध्यम से आरएसएस ने मीडिया, शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में अच्छी पैठ बना ली। ऊपर के कमेंट पर अनचाही लंबी भूमिका पर खेद जताने के बावजूद यहां भी भूमिका के विस्तार में ही इतनी जगह खर्च हो गयी।

1980 में जनता पार्टी के विघटन और सरकार के पतन के बाद इसके जनसंघ के घटक ने भारतीय जनता पार्टी के रूप में खुद का पुनर्गठन किया और सांप्रदायिकया के एजेंडे को छिपाकर व्यापक राजनैतिक स्वीकार्यता के मंसूबे से बिना परिभाषित किए गांधीवादी समाजवाद को अपना वैचारिक आधार बनाया। अब 1984 और इस पोस्ट के विषय के मुद्दे पर आते हैं।

1984 में प्रायोजित सिख जनसंहार के बाद कांग्रेस की चुनावी सफलता से आरएसएस और इसकी संसदीय शाखा भाजपा के कान खड़े हो गए कि दशकों से हिंदू-मुसलमान वे करते आए हैं तथा कुछ सिखों की हत्या से कांग्रेस ने बाजी मार ली तथा उन्होंने आक्रामक सांप्रदायिक एजेंडे का फैसला किया और गोविंद बल्लभ पंत और महंत दिगविजयनाथ की मदद से बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति रखने से शुरू विवाद को राम मंदिर के एजेंडे के तहत पुनर्जीवित करने का फैसला किया। देश भर की दीवारों पर 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' और जिस हिंदू का खून न खौला वह पानी है नारे लिखे जाने लगे। भाजपा तथा विहिप नेताओं ने मंदिर के लिए शिलापूजन यात्राओं का आयोजन शुरू कर दिया। राजीव गांधी और चिदंबरम् जैसे उनके सांप्रदायिक सलाहकारों को भी लगा कि धार्मिक तुष्टीकरण से चुनावी लांबंदी की जा सकती है। मुस्लिम कड्डरपंथियों को खुश करने के लिए शाहबानो मामले में सुप्रीमकोर्ट के प्रगतिशील फैसले को रद्द करने के लिए संसदीय बहुमत का इस्तेमाल कर कानून बना दिया दूसरी तरफ भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता का खेल खेलते हुए मस्जिद का ताला खुलवा दिया, चबूतरे के लिए भूमि अधिग्रहण किया, मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा प्रायोजित किया। दुश्मन (भाजपा) के हथियार (सांप्रदायिकता) से उसी के मैदान में उससे लड़ना चाहा। हार निश्चित थी।

वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल की घो,णा के बाद आडवाणी कमंडल लेकर राम मंदिर की रथयात्रा पर निकल पड़े और उसके बाद भाजपा का राजनैतिक आरोहण शुरू हुआ जो अब इतिहास बन चुका है। इसलिए कहता हूं कि 1984 में भारतीय राजनीति ने निर्णायक मोड लिया और धर्मनिरपेक्षता से सांप्रदायिकता में संक्रमण भविष्य का पथप्रदर्शक बना।

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