Sunday, June 13, 2021

बेतरतीब 104 (कैंपस का घर)

 जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर प्रवीण झा और उनकी पत्नी स्मिता गुप्ता जेएनयू के हमारे सहपाठी रहे हैं। आज फेसबुक पर स्मिता ने अपने जेएनयू आवास के बगीचे से चीकू के फलों की टोकरी की तस्वीर शेयर किया। तो मुझे नौकरी से रिटायर होने के साथ छूट चुके दिवि में हिंदू कॉलेज कैंपस के अपने घर के बगीचे की याद आ गयी जिसमें मेरे लगाए चीकू पर पास के रिज के बंदरों की फौज फलों के बड़े होने-पकने तक बचने ही नहीं देती थी। मैं कैंपस के घर के अनुभवों के संस्मरणों पर, समय मिलने पर, कभी एक श्रृंखला लिखूंगा, जिसकी शुरुआत हॉस्टल के वार्डन के तीन साल के कार्यकाल से शुरू हुई। वे तीन साल मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत दिन थे। मैं विरले शिक्षकों में होऊंगा जो कहे कि हॉस्टल के वार्डन के कार्यकाल का उसने जमकर आनंद लिया हो। I thoroughly enjoyed my tenure as hostel warden. हॉस्टल के मेरे छात्र भी उन तीन सालों को बहुत प्यार और सिद्दत से याद करते हैं। उनमें से ज्यादातर मेरी फेसबुक लिस्ट में भी हैं। वे मेरे उतने ही अजीज हैं, जितने क्लास के मेरे छात्र। हर रोज 2-4 से फोन पर बात हो जाती है, कई बार ग्रुप में। उस आवास के बगीचे में एक जामुन दो आम, 2 कटहल और एक नीबू के पेड़ पहले से थे, मैंने एक आड़ू, एक आंवला, एक अनार, एक बेल, एक नीबू समेत 15 पेड़ लगवाए थे, मेरे बाद वाले वार्डन ने उनमें से कई पेड़ खत्म हो जाने दिए। बाद में जिस घर में आए उसमें 2 आम के विशाल पेड़ पहले से थे। मैंने एक चीकू, एक अनार, 2 आंवला, दो नीबू, एक हरसिंगार, एक आम्रपाली समेत लगभग 10 पेड़ लगाए। पहली बार जब नीबू और अनारके फल आने लगे तो रोज सुबह मैं गिनता था। अनार कितने बड़े होते हमें पता नहीं लगा, क्योंकि गिलहरिया छोटे से ही खाना शुरू कर देती थीं। लेकिन समझदार थीं, एक अनार खत्म करके ही दूसरी पर जुटती थीं। नीबू न बंदर खाते थे न गिलहरी। एक कलमी नीबू था, पतले छिलके का लगभग नारंगी जितना बड़ा होता है, दूसरा लंबाकार, गंधराज जिसे बंगाली और असमी भात के साथ विशेष स्वाद से खाते थे। उसमें से मैं अपने बंगाली तथा असमी मित्रों और छात्रों आमंत्रित करके देता था और बच्चे पेड़ से तोड़कर आह्लादित होते थे। भूमिका लंबी हो गयी, चीकू की तस्वीर की स्मिता की पोस्ट पर निम्न कमेंट लिखा गया:


मैंने भी हिंदू कॉलेज के कैंपस के अपने घर के कंपाउंड में चीकू का पेड़ लगाया था, फल लगते तो बहुत थे लेकिन रिज के असंख्य बंदर बतिया ही तोड़कर गिरा देते थे। बढ़ने देते तो वे भी खाते और हम भी। लेकिन दिमाग इतना विकसित हो गया होता तो बंदर हीरह जाते। एक बार पकने तक 3 चीकू बचे थे एक-एक बेटियों को मिला और आधा-आधा सरोज जी को और मुझे। उसके बाद हर साल 4-5 बच जाते। 2019 में घर में रहने के आखिरी साल 10-12 बचे रह गए छात्रों के साथ बांट कर खाया। दो पुराने आम के पेड़ थे तथा मेरे लगाए 2 नीबू, 2 आंवला और एक अनार कई चाइना ऑरेंज। जबतक कैंपस में रहे कभी नींबू नहीं खरीदा आगंतुकों को जबरन नींबू का उपहार देते। आम हम किसी को तोड़ने नहीं देते थे, बंदर, तोते, गिलहरी के खाने से बचकर जो गिरते हम आंचार-खटाई बनाते और बांटते तथा बाल्टी में धोकर चूसते हुए गांव में देशी आम के सामूहिक भोज की याद में नस्टेल्जियाते। एक बार जब हॉस्टल में वार्डन थे तो मेरे एक जन्मदिन (26 जून) पर जो मुझे याद नहीं था, बच्चे और पत्नी गांव गए थे, आधी रात को कुछ स्टूडेंट्स केक वगैरह लेकर आ गए। अब इतनी रात को उन्हें क्या खिलाते तभी याद आया कि कर्मचारियों ने एक टोकरी आम बीन कर रख दिया था। रिटायर होने का सबसे अधिक कष्ट कैंपस का घर छूटने का ही है।

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