आर7म क्रांतिकारी नहीं, सुधारवादी कदम है। लाभ उटाने वाले नवशोषक नहीं, शोषित ही हैं। फर्क बहुत पड़ा है। हमारे समय में छात्रों में असवर्ण छात्रों की संख्या नगण्य थी, बाहुबलियों की गिरोबबाजी ब्राह्मण-राजपूत लाइन पर थी। शिक्षकों में असवर्ण प्रतिशत लगभग नहीं के बराबर था और गिरोहबाजी कायस्थ-ब्राह्मण लॉबी में थी. प्रोफेसरों में इस तरह की जातिवादी गिरोहबाजी देखकर कल्चरल शॉक लगा था। आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है। असवर्ण लड़के-लड़कियां छात्रसंघ का चुनाव भी जीतने लगे हैं। बाहुबलियों का समीकरण भी बदल गया है। यथास्थिति को जब भी धक्का लगता है, हलचल मचती है ही है। दिल्ली में 1990 में कैंपसों की संरचना आज जैसी होती तो मंडल विरोधी उंमाद एकतरफा नहीं होताब बल्कि बराबर का मुकाबला होता। इस परिवर्तन में दलित (बहुजन) प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के अलावा आरक्षण की भी भूमिका है। मंडल विरोधी उंमाद में मिश्र होकर मंडलविरोध के साथ मेरे न होने से मेरे शिक्षक मित्रों और छात्रों को कल्चरल शॉक लगा था। नौकरी में भी दिक्कतें आयी थीं।उस मसय के अनभवों से प्रेरित होकर मेरिट पर नवभारत टाइम्स में 3े लेख लिखे थे, उनका अभी मिलना तो मुश्किल है, लेकिन उस समय के अनुभव याद करने की कोशिस करूंगा।
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