एक सदी से अधिक बाद शुरू हुए यूरोपीय नवजागरण आंदोलन की ही तरह सामाजिक-आध्यात्मिक समानता के प्रमुख संदेश देने वाले कबीर के साथ शुरू हुए नव जागरण आंदोलन को वर्णाश्रमी गतिरोध के चलते कला, विज्ञान, राजनीति आदि क्षेत्रों में वैसा समर्थन नहीं मिला तथा उसके बाद आर्थिक प्रगति (सोने की चिड़िया) एवं अकबर द्वारा राजनैतिक एकीकरण के बावजूद न तो यूरोप की तरह यहां पूंजीवादी आर्थिक विकास हुआ न ही प्रबोधन (एन्लाइटेनमेंट) आंदोलन जैसी कोई बौद्धिक क्रांति हुई। इनके ऐतिहासिक कारणों के गहन विश्लेषण की दिशा में डीडी कोशांबी, केएम पानिक्कर जैसे इतिहासकारों ने प्रशंसनीय प्रयास किए हैं। मुझे लगता है कि जन्म की जातीय/वर्णाश्रमी अस्मिता को तोड़ने के कबीर के सामाजिक-साहित्यिक आंदोलन के फलीभूत होने में तुलसी के रामचरितमानस की वर्णाश्रमी यथास्थितिवादी कहानी और मान्यताओं व्यापक लोकप्रियता ने बहुत बड़े अवरोधककाम किया। मार्क्स ने लिखा है कि शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं। मर्दवादी, वर्णाश्रमी मान्यताओं के पोषक रामचरित मानस की पंक्तियां स्त्रियों और अवर्णों में भी उतनी ही लोकप्रिय हैं, जितनी पुरुषों और सवर्णों में। पूंजीवाद के विकास और फलस्वरूप उदारवाद के सदृश तार्किक दर्शन के विकास के अवरोध में औपनिवेशिक दखलंदाजी की भूमिका अहम रही है। उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशक तक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मतलब था भारत और पूर्व एशिया, प्रमुखतः चीन के सामानों का व्यापार। औपनिवेशिक दखलंदाजी ने, मार्क्स की अपेक्षा के प्रतिकूल एशियाटिक उत्पादन पद्धति के आर्थिक विकास में पूंजीवादी संबंधों को प्रोत्साहित करने की बजाय देशज उद्योंगों के विनाश तथा वर्णाश्रमी सामंतवाद को तोड़ने की बजाय औपनिवेशिक लूट में उसका इस्तेमाल किया। भारत में वर्णाश्रमी सामंतवाद के विरुद्ध नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियां अभी बाकी हैं, लेकिन अब सामाजिक और आर्थिक न्याय की क्रांतियों के अलग अलग क्रियान्वयन का समय नहीं है, जरूरत दोनों को समागम यानि द्वद्वात्मक एकता की है। 2016 के जेएनयू आंदोलन से जय भीम-लाल सलाम नारे के साथ इस प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है, जरूरत इसकी सैद्धांतिक और राजनैतिक व्याख्या की है। यह तो मैंने एक चलताऊ वक्तव्य दे दिया, इस पर गहन विचार-विमर्श की जरूरत है।
कबीर जयंती पर जय भीम - लाल सलाम नारे को व्यवहारिक अर्थ देकर हम कबीर को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
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