पतियों के लिए पत्नियों के व्रत के पर्वों की एक पोस्ट पर, बनस्पतिविज्ञान में शोध छात्र, एक युवा मित्र ने इसके लिए स्त्रियों के स्वभाव एवं स्वैच्छिकता का तर्क दिया। स्वैच्छिकता स्वाभाविक नहीं, सांस्कृतिक वर्चस्व के तंत्रों द्वारा कृतिम रूप से निर्मित होती है। उस पर:
लैंगिक असमानता की इस तरह की सोच सदियों से प्रत्यारोपित की जाती है। आप तो जीवविज्ञान की छात्र हैं और जानना चाहिए कि वैचारिकी का निर्धारण लैंगिक विभिन्नता से सामाजीकरण और सामाजिक प्रश्रिक्षण से निर्धारित होता है। पैदा होते ही लड़के-लड़की में असमानता की प्रवृत्तियों की घुट्टी पिलाई जाती है जिसे हम अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर व्यक्तित्व का हिस्सा बना लेते हैं। बच्चे पालने में स्तनपान के अलावा कौन सा काम पिता नहीं कर सकता? लेकिन हम कहते हैं कि बच्चे मां ही पाल सकती हैं। मेरा छोटी बेटी जब बहुत छोटी थी और मां के साथ कभी नों-झोंक होती तो तंज करती कि आपने मेरा क्या किया है, सबकुछ डैडी ने किया है। उसकी दूध की जरूरत ज्यादातर बोतल के दूध से पूरी होती थी। मदर डेयरी के दूध की आदत के बाद गांव गयी तो गाय का शुद्ध दूध उसे रास ही नहीं आता था। खैर उसके तंज में अतिशयोक्ति थी, उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी में उसकी मां की भूमिका अधिक थी और है, प्यार की गहनता भी उनके साथ ज्यादा है।
एक अन्य युवा मित्र ने कहा कि पति व्रत रखते तो युद्ध या शिकार करने, पैसा कमाने कौन जाता? , उस पर :
लैंगिक श्रमविभाजन एक मर्दवादी परियोजना ही थी, प्राचीनकाल में उत्तवैदिक गणतंत्रों में तथा बहुत से आदिवासी समुदायों में स्त्रियां भी पुरुषों के साथ युद्ध एवं शिकार में भाग लेती थीं। आज तो सेना समेत कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें स्त्रियां पुरुषों से किसी मायने में पीछे हों।
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