निजी संपत्ति को चोरी और असमानता को मानवता पर मनुष्यनिर्मित अभिशाप मानने वाले 18वीं शताब्दी के दार्शनिक रूसो अपनी कालजयी कृति सोसल कॉनट्रैक्ट की शुरुआत इस वाक्य से करते हैं, "मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है और अपने को बेड़ियों में जकड़ा हुआ होता है"। इन बेड़ियों को तोड़ने के लिए, सामाजिक संविदा के जरिए वह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता था, जिसमें लोग " उतने ही स्वतंत्र हों जितना पहले"। युगांतरकारी सपने भविष्य की पीढ़ियां पूरा करती हैं। उसी तरह हम सब पैदा समान इंसान होते हैं, पैदा होते ही समाज हम पर बाभन-ठाकुर-दलित का विभाजनकारी ठप्पा लगाता है, बाभन से इंसान बनने का मुहावरा एक ऐसे समाज के सपने का रूपक है जिसमें हम समाज के थोपे कृतिम ठप्पे से मुक्त होकर वापस इंसान बन सकें।
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