मेरे कई बार आग्रह के बाद भी कुछ लोग अपमानजनक लहजे में उम्र का तंज करने से बाज नहीं आते। मैं 10 दिन बाद 66 साल का हो जाऊंगा तथा बौद्धिक सक्रियता अन्य कारणों से कम हो सकती है, लेकिन लगता नहीं उम्र के जीववैज्ञानिक कारण की उसमें प्रमुख भूमिका है। ऐसा मत सोचिएगा कि मैं कोई विक्टिम इमेज बनाने की कोशिस कर रहा हूं, ऐसा मेरे स्वभाव के प्रतिकूल है। यह पोस्ट प्रकृति के इस सुविदित नियम की याद दिलाने के लिए किया है कि पैदा होने के बाद समय बीतने के साथ हर व्यक्ति बचपन, किशोरावस्था, जवानी और बुढ़ापे के पड़ावों से होते हुए मृत्यु के अवश्यंभावी सत्य की अंतिम मंजिल तक की यात्रा करता है। मेरी बातों का खंडन-मंडन तार्किक आधार पर करें बढ़ती उम्र के हवाले नहीं। तर्क में उम्र या सीनियार्टी की कोई रियायत न करता हूं न चाहता हूं। अवधी में एक कहावत है, 'पते में कौन ठकुरई'। विवि के ग्रुम में भाषा की न्यूनतम मर्यादा की अपेक्षा जरूर रखता हूं।
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DS Mani Tripathi जब से रूसों ने आम जन को राजनैतिक विमर्श का केंद्रीय विषय बनाया तब से सारे पूंदीवादी संविधान, 'वि द पीपुल' से शुरू होने लगे, वही हाल 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक समाजवाद शब्द की हो गयी और हिटलर ने अपने फासीवाद को राष्ट्रीय समाजवाद कहा और 1980 में फासीवादी आरएसएस ने अपनी संसदीय शाखा का नाम भारतीय 'जनता' पार्टी रखा और गांधीवादी समाजवाद को वैचारिक आधार बनाने का दावा किया। वैज्ञानिक समाजवाद को इसके प्रमुख बुद्धिजीवी मार्क्स के नाम से जाना जाता है। मैंने 2007 में एक सम्मेलन में कहा था कि बुद्धादेव वैसे ही कम्युनिस्ट हैं, जैसे मुलायम सोसलिस्ट।
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