एक मित्र ने पश्चिम अफ्रीका के एक देश में किसी धर्मोंमादी इस्लामी आतंकवादी द्वारा अपने 100 हमवतन, हममजहब इंसाने की निर्मम हत्या की न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर का लिंक शेयर किया। उस पोस्ट पर इंसानों की अमूल्य जिंदगी की अपूरणीय क्षति पर नहीं सारा ध्यान कम्युनिस्टों के जेहादी समर्थन की गल्पकथाओं, सेकुलरों के तथाकथित दोहरे मानदंड और इंसानियत की मुहिम की निंदा के रोजमर्रा के रटे भजन पर है। उस पोस्ट पर मेरे कुछ कमेंट:
कोन लोग? जिनकी मर्शिया पढ़ते हैं उन्ही से हर बात पर कार्रवाई की उम्मीद में उन्हें गरियाते रहते हैं। आपको अपने से अधिक औरों की चिंता रहती है। मानवता विरोधी ऐसे नरपिशाच सब जगहों पर पाए जाते हैं, धर्मोंमाद हमेशा विनाशकारी ही होता है। इस ग्रुप में बात-बेबात वामपंथ के भजन के आधार पर कोई निष्कर्ष निकाले तो पाएगा कि देश की सबसे बड़ी ताकत वामपंथ है और सबसे अधिक खतरा मुसलमानों से है। नकारात्मकता से निकलिए। दूसरों के काम का लेखाजोखा की बजाय अपने काम देखिए।
इस तरह के धर्मोंमादी कुकृत्य की निंदा से अधिक चिंता लगता है लोगों को बाभन से इंसान बनने के संकट से है। चिंता मत करिए कोई भी जबरदस्ती किसीको इंसान नहीं बना सकता, जब तालिबानी जेहादी इंसान नहीं बन सकते तो आपलोग क्यों पीछे रहें? इस बात से किसी की दाढ़ी में तिनका महसूस हो तो उसीकी जिम्मेदारी है।
हम तो श्रीकृष्ण की तरह न तो त्रिकालदर्शी हैं, न महाभारत के संजय की तरह दिव्य दृष्टि रखते हैं। कोरोना काल की अतिरेक सावधानी से अखबार पढ़ने से भी स्लवैच्छिक रूप से वंचित हैं। आत्मीय जनों समेत तमाम लोगों के बारे त्रासद खबरों से मन इतना उद्वेलित है कि फेसबुक भी 10-12 घंटे बात खोलता हूं, तो हर खबर से भिज्ञ न हो पाना और फौरी प्रतिक्रिया न दे पाना मानवीय विवशता हो सकती है, अपराध नहीं। हर बात पर फैौरी प्रतिक्रिया न दे पाने को सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों को सेकुलरिज्म को निशाना बनाने औक समाज में फिरकापरस्ती की नफरत फैलाकर देश तोड़ने केे अपने कम्यूनल एजेंडे को आगे बढ़ाने का बहाना मिल जाता है। इस पोस्ट में आतंकवादियों द्वारा अपने 100 सहधर्मियों की हत्या की चिंता पर सरोकार तो घड़ियाली आंसू सा है, मुख्य एजेंडा इस बहाने इंसानियत की मुहिम को निशाना बनाना है। धर्मोंमादी पातकी सभी समुदायों में पाए जाते हैं, सबकी निंदा औरलविरोध होना चाहिए।
हम तो श्रीकृष्ण की तरह न तो त्रिकालदर्शी हैं, न महाभारत के संजय की तरह दिव्य दृष्टि रखते हैं। कोरोना काल की अतिरेक सावधानी से अखबार पढ़ने से भी स्लवैच्छिक रूप से वंचित हैं। आत्मीय जनों समेत तमाम लोगों के बारे त्रासद खबरों से मन इतना उद्वेलित है कि फेसबुक भी 10-12 घंटे बात खोलता हूं, तो हर खबर से भिज्ञ न हो पाना और फौरी प्रतिक्रिया न दे पाना मानवीय विवशता हो सकती है, अपराध नहीं। हर बात पर फैौरी प्रतिक्रिया न दे पाने को सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों को सेकुलरिज्म को निशाना बनाने औक समाज में फिरकापरस्ती की नफरत फैलाकर देश तोड़ने केे अपने कम्यूनल एजेंडे को आगे बढ़ाने का बहाना मिल जाता है। इस पोस्ट में आतंकवादियों द्वारा अपने 100 सहधर्मियों की हत्या की चिंता पर सरोकार तो घड़ियाली आंसू सा है, मुख्य एजेंडा इस बहाने इंसानियत की मुहिम को निशाना बनाना है। धर्मोंमादी पातकी सभी समुदायों में पाए जाते हैं, सबकी निंदा और विरोध होना चाहिए।
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