दुर्भाग्य से, बहुत से लोग सारी नौकरियों की प्रतियोगिताओं से खारिज होकर, उच्च शिक्षा में मठाधीशी के चलते जुगाड़ से शिक्षक बन जाते हैं। इनमें से बहुत से शिक्षक शिक्षक होने का महत्व नहीं समझते, नहीं तो क्रांति का पथ वैसे ही प्रशस्त हो जाता। लेकिन अध्यापकों की इफरात तनख्वाह और कामचोरी का कुप्रचार, धनपशुओं की शिक्षा की दुकानों के दलालों की सोची-समझी चाल है। मेरी पत्नी कहती थीं कि इससे अच्छा तो ऑफिस की नौकरी करते, 9 बजे के पहले और 10 बजे का बाद घर पर तो रहते। शिक्षक की नौकरी 24 घंटे की होती है। मैंने तो 8 तक टाट-पट्टी वाले और उसके बाद लगभग मुफ्त की फीस वाले सरकारी संस्थानों से पढ़ाई की है। निजी दुकानों की फीस देने की कभी औकात ही नहीं रही। लाखों फीस देकर निजी स्कूलों से पढ़े लोगों को चुनौती देता हूं। निजी संस्थानों में आज जितनी फीस देकर पढ़ना होता तो अपढ़ ही रह जाते। उच्च शिक्षा में मठाधीशी के चलके बहुत से अवांछनीय तत्व घुस गए हैं लेकिन सामान्यीकरण उचित नहीं है। आज भी शिक्षा और छात्रों के प्रति निष्ठावान शिक्षकों की कमी नहीं है। राष्ट्रपति ने आयकर की बात झूठ बोला है।
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