Sunday, June 20, 2021

लल्ला पुराण 393 (इश्क)

  इलाहाबाद में हमारे एकाध लफड़े विवि के बाहर थे। विवाह तक पहुंचने की प्रतिबद्धता से किसी दीर्घकालीन इश्क की गुंजाइश नहीं थी, जब मैं इवि में आया तो विवाह हो चुका था गवन नहीं आया था। जिस भी लड़की से ज्यादा दोस्ती होती उसे संदर्भ गढ़कर विवाह और विवाह निभाने के फैसले की बात बता देता था। एक बहुत अच्छी दोस्त थी, सिविल लाइन्स तिकोने पार्क के पास (हीरा हलवाई चौराहा) ब्रिटिश कालीन सरकारी कोठी में अपने चाचा के साथ रहती थी। साइकिल से उसके साथ हीरा हलवाई की दुकान तक जाते थे वहां से चाय-वाय के बाद वह घर चली जाती और मैं वापस हॉस्टल। बीएससी के बाद वह चली गयी फिर कुछ पता नहीं चला। एक बार (आखिरी मुलाकातों में) उसने पूछा कि मैं उससे प्यार करता हूं क्या? मैंने कहा कि तुम इतनी अच्छी दोस्त हो तुमसे प्यार कैसे कर सकता हूं? उसने पीठ पर थापी देकर पूछा कि प्यार दुश्मन से करूंगा क्या? हो सकता है हमारे बीच कुछ रहा हो जिसे हमें पता नहीं चला। एक और दोस्त को गवन के बाद घर से लाया लड्डू दिया, पहले तो उसे गवन का मतलब समझाना पड़ा फिर वह ऐसी नाराज हुई कि वह हमारी अंतिम मुलाकात बन गयी। मैंने ऊपर एक कमेंट में बताया कि उन दिनों किसी लड़के-लड़की का साथ दिखना ही एक संज्ञेय परिघटना होती थी। 2016 में किसी कार्यक्रम में इलाहाबाद की यात्रा में एजी ऑफिस के पास महात्मा गांधी विवि के गेस्ट हाउस में रुका था, एक शाम याद ताजा करने हारा हलवाई के चौराहे पर चाय पीने चला गया। वहां नियमित अड्डेबाजी करने वाले दो लोगों ने 42 साल बाद मुझे पहचान लिया और हमारे साथ जो लड़की आती थी उसके बारे में पूछने लगे। मैं उन्हे क्या बताता?

सही कह रहे हैं। इवि में उन दिनों (1970 का दशक) जिसे जो लड़की अच्छी लगती वह उसे अपना माल मान लेता। बीएससी में मेरे क्लास की एक लड़की कई लोगों की 'माल' थी। कुछ लोगों ने हमें फीजिक्स से केमिस्ट्री विभाग या केमेस्ट्री से गणित विभाग क्लास करने साथ आते-जाते और एकाध बार मालवीय कैफे मे चाय पीते देखा था। उन दिनों लड़का-लड़की का साथ दिखना ही संज्ञेय परिघटना थी। मुझे पता ही नहीं चला कि मैं उन सब लोगों का दुश्मन बन गया था। कई साल बाद वह जब यूपीएससी का इंटरविव देने दिल्ली आयी तो जेएनयू में रुकी। मैंने मजाक में कहा कि यार बिना किसी चक्कर के इतने लोगों का दुश्मन बन गया था तो अब से चला लो उसने भी उसी लहजे में कहा था कि तब तक देर हो चुकी थी। उसके बहुत दिनों बाद, अटल जी के शासन के पहले कार्यकाल के दौरान सहारा के दफ्तरों में आयकर छापा डालने के बाद उसे छुट्टी पर भेजे जाने की खबर पढ़ कर अपनी दोस्ती पर फक्र हुआ।


चाय के साथ कभी कभी जलेबी और समोसा भी खाते थे। पैसे कभी मैं देता था, कभी वह। वह अपने घर से पैसे लेती थी मैंने घर से पैसा लेना बंद कर दिया था। मैं एक अखबार में पार्ट-टाइम प्रूफरीडिंग करता था और गणित के एकाध ट्यूसन पढ़ाता था। वैसे शहर में कई दुकानों पर चाय-सिगरेट की उधारी भी चलती थी। पिताजी से मेरे भविष्य की योजना पर विवाद हो गया। मार्क्स ने कहा है, 'अर्थ ही मूल है', यदि विचारों में स्वतंत्र होना चाहते हैं तो आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करो। उन दिनों किसान पिता के लिए हर महीने नकदी का इंतजाम वैसे भी आसान नहीं था। मैंने पिताजी से पैसा न लेने का फैसला कर लिया। घर से इलाहाबाद आते हुए दिमाग में ये पंक्तियां गूंजी -- 'जंगल तो हमें वैसे भी जाना है, वह हमें चुने उससे बेहतर, उसका हमसे चुना जाना है'। मैं अपनी छात्राओं को कहता था कि पढ़-लिखकर पहले आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करें। बाकी देखा जाएगा।

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  1. चाय के साथ कभी कभी जलेबी और समोसा भी खाते थे। पैसे कभी मैं देता था, कभी वह। वह अपने घर से पैसे लेती थी मैंने घर से पैसा लेना बंद कर दिया था। मैं एक अखबार में पार्ट-टाइम प्रूफरीडिंग करता था और गणित के एकाध ट्यूसन पढ़ाता था। वैसे शहर में कई दुकानों पर चाय-सिगरेट की उधारी भी चलती थी। पिताजी से मेरे भविष्य की योजना पर विवाद हो गया। मार्क्स ने कहा है, 'अर्थ ही मूल है', यदि विचारों में स्वतंत्र होना चाहते हैं तो आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करो। उन दिनों किसान पिता के लिए हर महीने नकदी का इंतजाम वैसे भी आसान नहीं था। मैंने पिताजी से पैसा न लेने का फैसला कर लिया। घर से इलाहाबाद आते हुए दिमाग में ये पंक्तियां गूंजी -- 'जंगल तो हमें वैसे भी जाना है, वह हमें चुने उससे बेहतर, उसका हमसे चुना जाना है'। मैं अपनी छात्राओं को कहता था कि पढ़-लिखकर पहले
    आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करें। बाकी देखा जाएगा।

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