Saturday, June 5, 2021

लल्ला पुराण 385 (बाभन से इंसान)

 इस ग्रुप के कई जातिवादी सवर्ण मुझसे परेशान रहते हैं वे प्रत्यक्ष-परोक्ष बनाकर 'तमीजदार' भाषा में निजी आक्षेपों से मुझे निशाना बनाकर अपनी जातिवादी कुंठा निकालते हैं। परोक्ष रूप से मुझे निशाना बनाकर बाभन से इंसान बनने के मुहावरे की प्रतिक्रिया में एक सज्जन ने बाभन-ठाकुरों के लिए चुंगी पर अकादमी खोलने की एक पोस्ट डाला और उस पर कई कमेंट्स की भाषा की तमीज से इवि के शिक्षा के स्तर पर दुखद आश्चर्य हुआ। पोस्ट के लेखक का आभारी हूं कि तंज कसने की तर्ज पर ही सही, बाभन से इंसान बनने के मुहावरे को विमर्श का विषय बनाया। अंतिम सत्य नहीं होता, सापेक्ष सत्य वाद-विवाद-संवाद से ही अन्वेषित होता है। उस पोस्ट पर मेरा एक कमेंट:


वैसे पोस्ट का लेखक लगता है असाहित्यिक व्यक्ति है मुहावरे की भाषा नहीं समझता तथा उनकी शाब्दिक व्याख्या करता है। बाभन से इंसान बनना जातिवादी पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर, सही मायने में एक शिक्षित व्यक्ति की तरह निखालिश विवेकशील इंसान बनने का मुहावरा है। बाभनों की ही तरह ठाकुरों, भूमिहारों, लालाओं, बनियों, अहिरों, कुर्मियों आदि को भी इंसान बनने की जरूरत है। जातिवादी भेदभाव का जवाबी जातिवाद भी इंसानियत के लिए समान रूप से घातक है। औपनिवेशिक शिक्षा-पद्धति का मकसद ज्ञान का प्रसार नहीं सरकारी नीतियों का बौद्धिक आधार और सरकारी मशीन के कल-पुर्जे तैयार करना था। विरासत में मिली औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति बिना किसी आमूल बदलाव के उसी उद्देश्य को आगे बढ़ा रही है, वस सरकार का स्वरूप बदल गया है, सार नहीं। शिक्षा संस्थानों में ज्ञान नहीं मिलता वहां छात्रों को व्यवस्था चलाने के लिए जरूरी सूचनाओं (information) और (skills) से लैश किया जाता है। ज्ञान के लिए अलग से प्रयास करना पड़ता है क्योंकि ज्ञान जो पढ़ाया जाता है, उससे नहीं, उस पर सवाल करने सो मिलता है, जिसके लिए स्वयं प्रयास करना पड़ता है। ज्यादा प्रयास करने वालों को जेएनयू, बीएचयू, हैदराबाद के विद्यार्थियों की तरह दमन झेलना पड़ता है। दमन झेलना भी ज्ञान-प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसा क्या ज्ञान जो हमें यह तक नहीं सिखा पाता कि व्यक्तित्व का निर्माण जन्म के संयोग के परिणाम स्वरूप जातीय प्रवृत्तियों से नहीं, समाजीकरण के परिणाम स्वरूप कर्मों और विचारों से होता है? मुहावरे की भाषा में जो हमें बाभन से इंसान नहीं बना पाता? सबसे अधिक अवैज्ञानिक सोच दुर्भाग्य से विज्ञान के विद्यार्थियों की होती है क्योंकि हम विज्ञान विज्ञान की तरह नहीं, दक्षता (skill) की तरह पढ़ाते हैं। मैं हॉस्टल का वार्डन था तो परीक्षा के दिन सुबह हनुमान जी का आशिर्वाद लेने जाते 15 बच्चों में 11-12 विज्ञान को होते और उनमें आधे भौतिकी के, जबकि भौतिकी बुनियादी विज्ञान (basic science) है जो किसी बात का संज्ञान नहीं लेता जिसमें भौतिकता न हो, जो करण-कारण ढांचे से बाहर हो, जो प्रमाणित न की जा सके। बाद में इसे एक लेख के रूप में विकसित करके शेयर करूंगा। अभी नहाकर, नाश्ता कर दवा खाकर, केंद्रीय विश्वविद्यालय तेजपुर (असम) के पीएचडी छात्रों को इसी से संबद्ध विषय 'अस्मिता विमर्श' पर एक ऑनलाइन लेक्चर देना है। लेकिन चिंता न करिए, इस पोस्ट और पर मुझे निशाना बनाते जातिवादी कुंठा से निकले निजी आक्षेप के पोस्ट्स-कमेंट्स की तरह के आक्षेपों को धैर्य की सीमा में झेलते हुए, इंसान बनाने का उपक्रम जारी रखूंगा। कुछ कमेंट्स पढ़कर इवि के स्तर पर आश्चर्य होता है, आप सबसे आग्रह है कि मुझे इस तरह के आश्चर्य से वंचित करें। सादर।

1 comment:

  1. मैंने कहां कहा लोग इलाहाबाद विवि के पढ़े नहीं हैं, निजी आक्षेप से अपनी जातीय श्रेष्ठता बघारने वाले भी, उन्ही से विनम्रतापूर्वक इंसान बनने का आग्रह करता हूं। मैंने कहां कहा कि किसी में प्रतिभाकी कमी है? विजय माल्या कम प्रतिभाशाली है क्या? कोई प्रतिभा की कमी से जातिवादी नहीं होता, जातीय श्रेष्ठता की गलतफहमी और अहंकार से होता है। जातिवाद के विरुद्ध मुहावरे से आपको तिलमिलाहट क्यों होती है? मैं किसी के लिए किसी ऐसे विशेषण का इस्तेमाल नहीं करता जो अपने लिए अनुचित लगे क्योंकि वह प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। मैं खुद बाभन से इंसान बनने का निरंतर प्रयास करता रहता हूं तभी दूसरों से ऐसा करने का आग्रह करता हूं। साधारण इंसान के रूप में दूसरों से भी इंसान बनने की गुजारिश में आपको दंभ या पाखंड नजर आता है तो आपकी दिव्यदृष्टि की दाद देनी पड़ेगी। आपको ठाकुर से इंसान नहीं बनना है तो कोई दबाव नहीं है, मैं तो आग्रह ही कर सकता हूं।

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