Friday, June 4, 2021

शिक्षा और ज्ञान 311 (संघी-मुसंघी)

संघी सांप्रदायिकता का मुस्लिम समतुल्य मुसंघी है। आपको किसी सेकुलर का यह नामकरण न पसंद हो तो कुछ और रख लीजिए, जैसे तालिबानी बजरंगी। वैसे मुसंघी से आपको क्या दिक्कत है? इसमें आप को संघी सांप्रदायिकता का अपमान नजर आता है या मुसंघी सांप्रदायिकता का सम्मान?

पहले तो आप अपने आप को स्पष्ट कीजिए कि आपको परेशानी
धर्मनिरपेक्षता से है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता से? यह भी (अपने आप से) स्पष्ट कीजिए कि आपका धर्मनिरपेक्षता की विकृति से है या संघी सांप्रदायिकता की आलोचनासे? तमाम सांप्रदायिक लोग अपने सांप्रदायिक चरित्र को छिपाने के लिए सेकुलरिज्म को टार्गेट करते हैं क्योंकि टार्गेट करने के लिए मुसलमान कम हो गए हैं। उनकी कुंठा यह है कि जब वे सांप्रदायिक बनने से नहीं बच सके तो और कोई कैसेबचान रह सकता है। अपना संघी सांप्रदायिक चरित्र छिपाने के लिए मुसंघी सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता की ओट मत लीजिए। हिम्मत कर कहिए कि इस्लामी सांप्रदायिकता को मुसंघी कहना आपको इसलिए खलता है कि आप संघी सांप्रदायिकता के पक्षधर हैं। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही पड़ेंगे। अंत में, मुक्तिबोध के ही शब्दों में आपकी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर? इसे अन्यथा न लें संस्कारगत और समाजीकरण से आत्मसात किए पूर्वाग्रहों से मुक्ति बहुत आसान नहीं है, लेकिन आसान काम तो कोई भी कर लेता है।

Raj K Mishra मेरी न तो कोई पार्टी है न ही पार्टीगत चेतना है, 32-33 साल पहले पार्टी लाइन को अमार्क्सवादी बताते हुए एक लंबा लेख लिखकर एक पार्टी छोड़ा था। भक्तिभाव हमेशा अधोगामी होता है चाहे वह दक्षिणपंथी हो या वामपंथी। पूर्वाग्रहों से मुक्ति निश्चित ही आसान नहीं है, लेकिन आसान काम तो कोई भी कर सकता है। इसके लिए दुर्लभ साहस के साथ सघन आत्मावलोकन, आत्मालोचना के साथ गहन एवं निरंतर आत्मसंघर्ष की जरूरत होती है। लेकिन सिद्धांतों को जीने (करनी कथनी में एका बैठाने) के लिए उठाया गया कष्ट सुखद होता है। जैसे यदि आप स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास रखते हैं तो किचेन में काम करने का कष्ट सुखद होता है। इसके लिए पत्नी को भी प्रथा के विपरीत सोचने की आदत डालना भी कष्टप्रद होता है। लेकिन मुक्तिबोध के शब्दों में अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही पड़ेंगे, तोड़ने ही पड़ेंगे हठ और मठ। किसी को झट से नहीं कह देता कि वह पूर्वाग्रहों से ऊपर नहीं उठ पाया, सोच-विचार कर कहता हूं। मंडलविरोधी उंमाद के दौरान, जातीय पूर्वाग्रह से उबरने के लिए स्व के स्वार्थबोध से ऊपर उठकर स्व के परमार्थबोध के तहत आरक्षण विरोध के विरोध के लिए सघन आत्मसंघर्ष करना पड़ा था। उसी विरोध के चलते अस्थाई नौकरी चली गयी थी। मेरे विभागाध्यक्ष ने कहा था, People don't express their opinions as long as they are temporary but probably, that's not in your personality. मैं तो चाहता हूं आप मेरी पॉलिटिक्स के दूध का दूध पानी का पानी कर दें, लेकिन दुर्भाग्य से आप इसका उल्टा करते हैं क्योंकि आपने unlearning का कष्ट उतनी सिद्दत से उठाया ही नहीं और पूर्वाग्रहों के वशीभूत काम करते हुए उनसे मुक्ति का मुगालता पालते रहे। मैं फन्ने कसाई का हमदर्द नहीं बनता लेकिन वीरेश्वर द्विवेदी के कुकर्मों के भंडाफोड़ में अपने सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के चलते आपको उससे मेरी हमदर्दी दिखती है। आम आदमी का (या आम हिंदू का) एकमात्र प्रवक्ता बनने वाले दुष्टों का पीछा करना ही चाहिए क्योंकि अपनी मुक्ति की लड़ाई आमआदमी (कामगर) वर्गचेतना से सैश हो खुद लड़ेगा, उसे किसी प्रवक्ता की जरूरत नहीं है। मेरा भी कमेंट लंबा हो गया पार्टनर, लेकिन मैं कभी आक्षेप नहीं लगाता, शिक्षक कर्म की आदत से मजबूर निर्ममता से विश्लेषण करता हूं।

कमेट लंबा हो गया तो बाकी अगले कमेंट बॉक्स में... 


15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी। 15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी। 15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी।


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