कमेट लंबा हो गया तो बाकी अगले कमेंट बॉक्स में...
15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी। 15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी। 15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी।
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