दर्शन का उद्गम समस्याएं ही हैं, विश्व में मौजूद समस्याओं पर विचार ही दर्शन है। इससे मार्क्सवादी दर्शन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के इस नियम की पुष्टि होती है कि विचार की उत्पत्ति का स्रोत वस्तु है। जैसा कि युवा कार्ल मार्क्स को लगा था कि पारंपरिक दर्शन की समस्या विभिन्न तरीकों से दुनिया की व्याख्या रही है, द्वद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन की समस्या दुनिया की व्याख्या के साथ उसे बदलने की है। मध्यकालीन सामंती युग में दर्शन की धुरी धार्मिक मान्यताएं थीं, पूंजीवादी युग की दार्शनिक समस्या सामंती दार्शनिक मान्यताओं को खारिज कर उनकी जगह नई प्रस्थापनाएं स्थापित करना था जिसके लिए व्यक्ति केंद्रित वैज्ञानिक कलेवर के साथ उदारवादी दर्शन का उदय हुआ। उदारवाद का मकसद औद्योगिक पूंजीवाद की बौद्धिक पुष्टि थी। प्रमुख पैराडाइम के रूप में पूंजीवाद की स्थापना के बाद उदारवाद अप्रासंगिक हो गया तथा धार्मिक दार्शनिक मान्यताओं से लड़ने की बजाय पूंजीवाद के नवउदारवादी दौर में उसने धार्मिक मान्यताओं को नवउदारवादी दर्शन का सहयोगी बना लिया। नल्लवाद तथा धार्मिक कट्टरतावाद (सांप्रदायिकता) नवउदारवादी दर्शन के सहायक बन गए। समकालीन शासक वर्ग के दर्शन की समस्या पूंजी के नवउदारवादी मूल्यों का पोंगापंथ के साथ संश्लेषण है तथा उसके वैकल्पिक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन की समस्या उपरोक्त संश्लेषण को बेनकाब कर उसके विरुद्ध नई जनवादी वैज्ञानिक चेतना का निर्माण यानि नवउदारवादी युग चेतना से निर्मित सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है। यानि दर्शन को दुनिया की यथास्थितिवादी व्याख्या तथा यथास्थिति के औचित्य की स्थापना के साधन से दुनिया की वैज्ञानिक व्याख्या तथा जनपक्षीय परिवर्तन के साधन में बदलना है, जिसकी पूर्व शर्त है नस्ल, धर्म, जाति, Ethnicity, लिंग आधारित मिथ्या चेतनाओं से मोहभंग है।
जैसा मैंने कहा कि ऐतिहासिक रूप से मुख्यधारा के दर्शन का मकसद यथास्थिति की वर्चस्वशाली वर्गों के हितों के अनुकूल व्याख्या तथा बौद्धिक औचित्य प्रदान करना रहा है तथा उसकी वैकल्पिक व्यवस्था के दर्शन का उद्देश्य भी वही (व्याख्या तथा औचित्य) होता है। जीवन जगत को संपूर्णता के लिए जरूरी है कि संपूर्णता को नस्ल, लिंग, धर्म आदि कृत्रिम आधारों खंडित करने वाली मान्यताओं का निषेध हो। विभक्त दुनिया में दृष्टिकोण भी विभक्त होंगे, क्योंकि व्यक्तित्व विभक्त होता है। अपने दृष्टिकोण और परिप्रक्ष्य के निर्धारण में यदि हमअपने स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह दे सकें तो एकांगी दृष्टि से बच सकते हैं। मसलन, पितृसत्तात्मक (मर्दवादी) समाज में पुरुष होने की, वर्णाश्रमी समाज में ब्राह्मण होने की प्रिविलेजेज को त्याग कर समताभाव से परिघटनाओं पर विचार करें तो एकांगी दृष्टि से बच कर समष्टिमूलक दृष्टि विकसित कर सकते हैं। पुरुष होने के नाते प्राप्त विशेषाधिकारों को त्यागने का मतलब पुरुष विरोधी होना नहीं है।
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