नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 और शाहीन बाग
एक नया नवजागरण
ईश मिश्र
शहंशाह को बागों से
बहुत शिकायत है
उसने अपनी डायरी में लिख लिया
बाग के माने बगावत है
बहुत शिकायत है
उसने अपनी डायरी में लिख लिया
बाग के माने बगावत है
--- सोनी पांडेय
आज (26 जनवरी,
2020) जब राजधानी के राजपथ पर सैन्य बल के
प्रदर्शन से देश के 70वें गणतंत्र का उत्सव मानाया जा रहा था तो
दक्षिणपूर्व दिल्ली की कल तक एक अनजानी कॉलोनी, शाहीन बाग में तिरंगे झंडों की
सैलाब में संविधान की प्रस्तावना पढ़कर, उसकी रक्षा की शपथ के साथ गणतंत्र दिवस
मनाया गया। आज के इस उत्सव की मुख्य अतिथि, गोर्की के उपन्यास, मां की याद
दिलाती दो मांएं थी, रोहित वेमुला की मां
और नजीब की मां। गौरतलब है कि रोहित वेमुला ने जनवरी 2016 में हैदराबाद केंद्रीय
विश्वविद्यालय में प्रशासनिक प्रताड़ना से आजिज आकर आत्महत्या कर ली थी, जिसे
सांस्थानिक हत्या कहा जा रहा है। जेएनयू के छात्र नजीब पर अक्टूबर 2016 में अखिल
भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने हिंसक हमला किया था तथा जान से मारने की
धमकी दी थी। तब से नजीब गायब है। सीबीआई ने अदालत में मामला बंद करने का हलफनामा
दाखिल कर दिया, लेकिन नजीब की फातिमा ने नजीब की तलाश बंद नहीं किया है उसी तरह जैसेरोहित
की नमां रोहित की लड़ाई को जारी रखे हैं। इन दोनों मांओं ने भारत के 40 फीट ऊंचे
नक्शे की प्रतिमा के सामने 35 फीट लंबा तिरंगाफहरा कर गणतंत्र दिवस मानाया।
सांप्रदायिक भेभाव पर आधारित, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), 2019 के
विरुद्ध 15 दिसंबर से जारी शाहीनबाग की स्त्रियों के दिन-रात धरने के चलते, शाहीन बाग एक जगह के नाम की जातिबाचक संज्ञा से
एक विचार की भावबाचक संज्ञा बन गया है। विचार कभी मरता नहीं, फैलता है और इतिहास
रचता है। शाहीन बाग का विचार शहर शहर फैल रहा है, इलाहाबाद का रोशनबाग शाहीन बाग बन गया है
तो लखनऊ का घंटाघर और बनारस का बिनियाबाग। शाहीन बाग का विचार देश-विदेश में फैल
रहा है। कई शहरों की स्त्रियां शाहीन बाग की स्त्रियों के पदचिन्हों पर चलकर, आजादी के तरानों के साथ
दिन-रात के विरोध प्रदर्शन आयोजित कर रही हैं, उनके पीछे पुरुष भी आ रहे हैं। देश
के हर शहर, हर कस्बे में सैकड़ों हजारों लाखों का जनसैलाब उमड़ रहा है जिसकी
व्यापकता, जेपी आंदोलन के नाम से जाने जाने वाले, इंदिरा गांधी की सत्ता की चूलें
हिला देने वाले, 1974 के छात्र आंदोलन से बहुत अधिक है। इन प्रदर्शनों की आहटें
विदेशों- यूरोप, अमेरिकातथा ऑस्ट्रेलिया के भी कई शहरों में सुनाई दे रही हैं। आज
बच्चे-बुड्ढे समेत कलकत्ता के नागरिकों ने 11 किमी लंबी मानवश्रृंखला बनाया तो
केरल के नागरिकों ने, मुख्यमंत्री विजयन के नेतृत्व में 62 किमी। पुलिस का दमन
सालों के संचित आक्रोश को अभिव्यक्ति देते जनसैलाब को रोक पाने में असमर्थ है। यह
जनसैलाब हर शहर, हर कस्बे में तथा तमाम गांवों में भी उमड़ रहा है।
13 दिसंबर. 2019 को सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता संशोधन अधिनयम, 2019 के
विरुद्ध दिल्ली की जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से शुरू हुए राष्ट्र-व्यापी आंदोलन
को शाहीन बाग की औरतों ने एक नया आयाम दिया। जैसा कि सुविदित है, युवा उमंगों के
उफान को कुचलने के मकसद से 15 दिसंबर को पुलिस ने जामिया मिलिया के कैंपस में
घुसकर छात्रोंपर हमला कर दिया। लाइब्रेरी में तोड़फोड़ कर हिंसक तांडव मचाया। इससे
शाहीन बाग की स्त्रियों का दिल दहला दिया और वे, बच्चे, बूढ़े, जवान सभी, हिंदुत्व
ब्रिगेड के सालों से मन में पैठे भय को त्याग कर आंदोलित हो गयीं। शाहीन उन्होंने
बाग के माने बदल कर बगावत कर दिया, जिससे शहंशाह डरने लगा। गृहमंत्री अमितशाह ने
विधान सभा चुनाव प्रचार में शाहीन बाग से
दिल्ली की मुक्ति के लिए भाजपा को वोट देने की अपील की। लेकिन शाहीन बाग तो विचार
बन गया है, जिसे दिल्ली ने आक्मसात कर लिया है। झारखंड की चुनाव सभाओं में मोदी ने
आंदोलन को कांग्रेस द्वारा भड़काया बताया तथा पहनावेसे आंदोलनकारियों को पहचानने
का सांप्रदायिक शगूफा छोड़ा। झारखंड की जनता ने शगूफे को नकारते हुए, चुनावों में भाजपा को मुहकी खिला दी।
यह आंदोलन एक नये नवजागरण का आगाज है। इसकी वाहक स्त्रियां हैं। यह स्त्रियों
की आजादी की टंकार से से निकला मानव मुक्ति का नवजागरण है। 16वीं शताब्दी के यूरोपीय
नवजाहगरण की अगली कतार में पुरुष थे, 21वां शताब्दी के इस नए नवजागरण की अगली कतार में स्त्रियां
हैं। आजादी के नारों तथा क्रांतिकारी तरानों के साथ झूमती युवतियों के वायकल हो
रहे वीडियो मंत्र-मुग्ध करने वाले हैं। 15 दिसंबर, 2019 को संविधान के
धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर आघात करने वाले नए नागरिकता कानून के विरुद्ध प्रदर्शन को
कुचलने के मकसद से जामिया के छात्रों पर पुलिसिया हमलों के प्रतिरोध में शुरू शाहीन
बाग की स्त्रियों के धरने का चिलचिलाती ठंड को धता बताते हुए आज इकतालिसवां दिन
है। ये स्त्रियां किसी मौलवी का प्रवचन सुनने के लिए नहीं, संविधान के
धर्मनिरपेक्ष चरित्र तथा उसकी जनतांत्रिक भावना की रक्षा के लिए निकली हैं, ये
हिजाब और घूंघट के मिथकोंको तोड़कर, भजन-कीर्तन नहीं कर रहीं, आजादी के तराने गा
रही हैं, नमाज की आयतें नहीं, संविधान की
प्रस्तावना पढ़ रही हैं। संविधान की प्रस्तावना पढ़ना इस आंदोलन की विशिष्टता बन
गया है। अंतर्राष्ट्रीय इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम के अनुसार, संविधान
के प्रति निष्ठा ही राष्ट्रभक्ति है, इस अर्थ में यह नवजागरण आंदोलन देशभक्ति की
दावेदारी का आंदोलन भी है। यह एक अलग किस्म का नव जागरण है, 1857-58 के बाद दो
प्रमुख धार्मिक समुदायों की एकता की एक अनोखी मिशाल का परिचायक। 1857-58 की
क्रांतिकारी एकता से आतंकित अंग्रेज शासकों ने धार्मिक आधार पर ‘बांटो-राज करो’ की
नीति अपनाया, यह आंदोलन,
सांप्रदायिक राजनैतिक ध्रुवीकरण के मकसद से देशी शासकों की, धार्मिक आधार पर,
‘बांटने-राज करने’ उसी तकह की चाल का पर्दाफास कर, नाकाम कर रहा है। हिंदू-मुस्लिम
नरेटिव के भजन की शाह-मोदी की चालें नाकाम हो रही हैं। आंदोलन का एक नारा है, “हिंदू-मुस्लिम
राजी तो क्या करेगा नाजी?” पूरा देश असम
बनने से बचना चाहता है। राजनैतिक पार्टियों और मजहबी ठेकेदारों की अनुपस्थिति एक
सकारात्मक बात है। सभी स्वतःस्फूर्त आंदोलनों की ही तरह केंद्रीय नेतृत्व और
नियोजन का अभाव इस आंदोलन की कमी भी है मजबूती भी। आंदोलन के परिणाम भविष्य के गर्भ में हैं।
सौभाग्य से यह आंदोलन अभी तक राजनैतिक
पार्टियों के नेताओं से बचा हुआ है, यह आंदोलन सामासिक संस्कृति तोड़ने वालों के
भी खिलाफ है। अकबरुद्दीन ओवैसी की कोई नहीं सुन रहा है न ही अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों के प्रायोजित भड़काऊ बयान को कोई तवज्जो दे रहा
है। मोदी-शाह-योगी इसे अपने एकमात्र हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के सांप्रदायिक एजेंडे
में ढालने की पूरी कोशिस कर रहे हैं, लेकिन लोग इनके तोड़ने की कोशिस नाकाम कर रहे
हैं। शाह ने लखनऊ में कहा कुछ लोग खास समुदाय में भ्रम फैला रहे हैं लोग उनके
शगूफे का जवाब कौमी एकता से दे रहे हैं, शाहीन बाग की औरतों ने बाग के मायने
बदलकर बगावत कर दिया, हर जगह पहुंच रहा है शाहीन बाग का विचार -- लखनऊ, इलाहाबाद,
बनारस, बंगलोर, मुंबई... पटना। जैसा ऊपर कहा गया है, यह कौमी एकता अंग्रेज 1857-58 की क्रांति की
याद दिलाती है। वीडियो में लखनऊ के घंटाघर में नारे लगाती लड़कियों के जज्बे देख
कर भावुक हो गया। यह डर के विरुद्ध संचित आक्रोश है, चरम पर पहुंच कर डर खत्म हो जाता है, इश आंदोलन का
कोई नेता नहीं, सब नेता हैं। ये नए जमाने की लड़कियां हैं, इन्हें भाई-बाप की सुरक्षा नहीं चाहिए, आजादी चाहिए, भाई-बाप को
सुरक्षा देने की आजादी।
नागरिकता संशोधन
विधेयक लोकसभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। सत्तापक्ष की बहस में संविधान की
प्रस्तावना और उसकी मूल भावना बेमानी लग रही थी । गृहमंत्री जब ज़वाब दे रहे थे तो
इस विधेयक के लाने के लिए वे इतिहास को जवाबदेह ठहरा रहे थे । वे कह रहे थे कि
कांग्रेस अगर धर्म के आधार पर मुल्क़ का बंटवारा क़ुबूल नहीं किया होता तो आज इस कानून
की जरूरत नहीं होती।
धर्म के आधार पर देश के निर्माण के बारे में उनका यह वक्तव्य निहायत ही अर्धसत्य और तथ्यों की मनगढ़ंत व्याख्या पर आधारित है । पहली बात तो मुल्क़ का बंटवारा ब्रिटिश सरकार का राजनीतिक फ़ैसला था । उस ब्रिटिश सत्ता का सम्राज्यवादी राजनीतिक फ़ैसला था जिस सत्ता का भाजपा के पूर्ववर्तियों या आरएसएस ने कभी विरोध नहीं किया था। दूसरे, यह राजनीतिक फ़ैसला भी धर्म की बुनियाद पर नहीं था बल्कि सम्प्रदायिकता के हथियार से देश के टुकड़े किये गए जिसके एक हत्थे पर मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियां बैठीं थीं और दूसरे हत्थे पर पर हिंदु साम्प्रदायिक शक्तियां मुट्ठी बांधे खड़ी थी । गौरतलब है कि धर्म और साम्प्रदायिकता में फ़र्क़ होता है। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं, धर्मोंमाद के सहारे लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है। यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि उस समय के अधिकांश मुस्लिम धार्मिक समूहों ने मुल्क़ के बंटवारे का विरोध किया था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के मुस्लिम सदस्यों, मौलाना आज़ाद और खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान आदि ने बंटवारे के विरोध में वोट किया था । पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के मुख्यमंत्री डॉ खान बंटवारे के विरुद्ध मुहिम चला रहे थे। लेकिन सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में दक्षिण पंथी कांग्रेसियों का मज़बूत धड़ा राजनीतिक तौर पर, साम्प्रदायिक तौर पर नहीं, बंटवारे के पक्ष में हो गया था, जिनका वर्किंग कमेटी में बहुमत था। कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते नेहरू बहुमत के साथ जाने को बाध्य थे। दोनों ही तरफ की सांप्रदायिक तोकतों ने दंगों और हिंसा के जरिए सांप्रदायिक विद्वेष तथा नफरत फैलाकर आग मेंघी डालने का काम किया। औपनिवेशिक ताकतें मुल्क को बांटने के मंसूबे में कामयाब रहीं। देश के बंटवारे की चर्चा के विस्तार में जाने की यहां गुंजाइश नहीं है, वह अगल चर्चाका विषय है, बाजपा सरकार झूठ के सहारे कांग्रेस की गलती सुधार के नाम पर, प्रस्तावना में वर्णित, धर्मनिरपेक्षता की संविधान की मूल भावना के विरुद्ध धार्मिक आधार पर नागरिकताका यह अधिनियम ले आई।
धर्म के आधार पर देश के निर्माण के बारे में उनका यह वक्तव्य निहायत ही अर्धसत्य और तथ्यों की मनगढ़ंत व्याख्या पर आधारित है । पहली बात तो मुल्क़ का बंटवारा ब्रिटिश सरकार का राजनीतिक फ़ैसला था । उस ब्रिटिश सत्ता का सम्राज्यवादी राजनीतिक फ़ैसला था जिस सत्ता का भाजपा के पूर्ववर्तियों या आरएसएस ने कभी विरोध नहीं किया था। दूसरे, यह राजनीतिक फ़ैसला भी धर्म की बुनियाद पर नहीं था बल्कि सम्प्रदायिकता के हथियार से देश के टुकड़े किये गए जिसके एक हत्थे पर मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियां बैठीं थीं और दूसरे हत्थे पर पर हिंदु साम्प्रदायिक शक्तियां मुट्ठी बांधे खड़ी थी । गौरतलब है कि धर्म और साम्प्रदायिकता में फ़र्क़ होता है। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं, धर्मोंमाद के सहारे लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है। यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि उस समय के अधिकांश मुस्लिम धार्मिक समूहों ने मुल्क़ के बंटवारे का विरोध किया था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के मुस्लिम सदस्यों, मौलाना आज़ाद और खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान आदि ने बंटवारे के विरोध में वोट किया था । पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के मुख्यमंत्री डॉ खान बंटवारे के विरुद्ध मुहिम चला रहे थे। लेकिन सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में दक्षिण पंथी कांग्रेसियों का मज़बूत धड़ा राजनीतिक तौर पर, साम्प्रदायिक तौर पर नहीं, बंटवारे के पक्ष में हो गया था, जिनका वर्किंग कमेटी में बहुमत था। कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते नेहरू बहुमत के साथ जाने को बाध्य थे। दोनों ही तरफ की सांप्रदायिक तोकतों ने दंगों और हिंसा के जरिए सांप्रदायिक विद्वेष तथा नफरत फैलाकर आग मेंघी डालने का काम किया। औपनिवेशिक ताकतें मुल्क को बांटने के मंसूबे में कामयाब रहीं। देश के बंटवारे की चर्चा के विस्तार में जाने की यहां गुंजाइश नहीं है, वह अगल चर्चाका विषय है, बाजपा सरकार झूठ के सहारे कांग्रेस की गलती सुधार के नाम पर, प्रस्तावना में वर्णित, धर्मनिरपेक्षता की संविधान की मूल भावना के विरुद्ध धार्मिक आधार पर नागरिकताका यह अधिनियम ले आई।
अधिनियम की आवश्यकता
यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या इसकी
संसदीय शाखा भाजपा के वैचारिक श्रोतों या प्रतिबद्धताओं के विस्तार में जाने की
गुंजाइश नहीं है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध
पहले राष्ट्रव्यापी, जनांदोलन. महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले असहयोग आंदोलन की
वापसी के बाद, 1925 में, हिंदू पुरुषों को संगठित कर ‘हिंदू राष्ट्र’ के निर्माण
के उद्देश्य से हुई। जैसा कि ऊपर चर्चा की गयी है कि औपनिवेशिक अंग्रेज शासक 1857
के भारतीय ‘स्वतंत्रता संग्राम’ की भारतीयों की एकता से विचलित हो ‘बांटो-राज करो’
की नीति केतहत हिंदुस्तानियों को धार्मिक नस्ल के रूप में परिभाषित करना शुरू किया
तथा उन्हें दोनों ही प्रमुख धार्मिक समुदायों में सहयोगी मिल गए। मुस्लिम लीग और
हिंदू महासभा ने उपनिवेशविरोधी आंदोलन से निकले भारतीय राष्ट्रवाद के समानांतर
धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर आवाम की एकता तोड़ना शुरू कर दिया। हिंदू महासभा के
कामको जुझारू आयाम प्रदान करनेके लिए सैन्यकरण के सिद्धांत पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की स्थापना हुई। मनुस्मृति को दुनिया और इतिहास की सर्वश्रेष्ठ न्यायिक आचार
संहिता मानने वाले इसके प्रमुख विचारक, संघ सर्किल में गुरू जी नाम से विख्यात.
माधवराव सदाशिव गोल्वल्कर आजादी की लड़ाई की सशस्त्र एवं शांतिपूर्ण दोनों धाराओं
को अधोगामी मानते थे तथा संघ का उद्देश्य देश की किसी अपरिभाषित गौरव के शार्ष पर
ले जाना। हिंदुओंसे उनकी अपील अंग्रेजों
से लड़ने में ऊर्जा न नष्ट कर उसे मुसलमानों और कम्युनिस्टोंके लिए संरक्षित रखने
की थी। यहां संघ और इसकी संसदीय शाखा की विचारधारा के इतिहास में जानेकी गुंजाइश
नहीं है, बस यह इंगित करना है कि किसी अंतर्दॉष्टि के अभाव में मुस्लिम विरोध तथा
धर्मोंमादी राष्ट्रवाद ही इनकी राजनैतिक लामबंदीका एकमार् औजार रहा है।
1984 के पहले सामाजिक स्वीकार्यता के लिए,
1980 में जनता पार्टी से अलग होकर संघ की संसदीय शाखा जनसंघ ने खुद को अपरिभाषित
गांधीवादी समाजवाद के सिद्धांत पर. भारतीय जनता पार्टी के रूप में पुनर्गठित कियात
था रक्षात्मक सांप्रदायिक नीति अपनाया। 1984 के सिख नरसंहार और उसके बाद राजीव
गांधी केनेतृत्व मेंकांग्रेस की अभूतपूर्व संसदीय विजय ने इनकी आंखे खोल दी और
राममंदिर का मुद्दा बनाकर आक्रामक सांप्रदायिक एजेंडा अपनाया। तब से बाबरी विध्वंस
के रास्ते 2019 तक की इनकी संसदीय कामयाबी इतिहास बन चुका है। किसी सामाजिक आर्थिक
कार्यक्रम या अंतर्दृष्टि के अभाव में प्रकारांतर से हिंदू-मुसलिम या
पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद के नरेटिव के मुद्दों से सांप्रदायिक ध्रुवीरण ही
इनकी एकमात्र राजनैतिक रणनीति है। असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के माध्यम
सेबंगलादेशी घुसपैठियों के बहाने ये हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से सांप्रदायिक ध्रुवीरण
की निरंतरता की योजना बनाया। सैकड़ोंकरोड़ के सरकारी खर्च और लोगों की भीषण
परेशानियों के उपरांत बने नागरिकता रजिस्टर ने इनका समीकरण गड़बड़ा दिया। 19 लाख
तथाकथित गैरनागरिकों में 15 लाख ही बंगाली हैं तथा उसमें 4 लाख ही मुसलमान। 11 लाख
तथाकथित अवैध हिंदू बंगालियों को भंगलादेशी घुसपैठिए करार देने से हिंदू-मुस्लिम
नरेटिव गड़बड़ा जाता। नरेटिव को दुरुस्त करने के लिए पाकिस्तान, बांगलादेश तथा
अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम धार्मिक प्रताड़ितों को नागरिकता प्रदान करने का
विधेयक लाया गया। इस सरकार तथा संघ परिवार को इतने व्यापक विरोध की उम्मीद नहीं
थी। मोदी-शाह-योगी प्रशासन चुन चुन कर मुस्लिमों को निशाना बनाकर विरोध
कोसांप्रदायिक रंग देने की कोशिस में हैं, लेकिन देश भर में उभरते जनसैलाब की
निरंतरता इनके मंसूबों को नाकाम कर रही है। यह संचित आक्रोश का विस्फोट है।
2019 मुल्क के
इतिहास का अंधेरी सुरंग का दौर था खत्म होते होते सुरंग खत्म होती दिखी, देश की जवानी
आंदोलित हो उठी, युवा उमंगों
की लहर देख बुढ़ापा भी लहराने लगा और इतिहास को एक रोशन रास्ता दिख रहा है।
उम्मीद है 2020 के दशक की
शुरुआत इतिहास में नया सुर्ख रंग भरेगा। दुर्भाग्य से पिछले 2 दशकों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण मुल्क की
राजनीति में निर्णायक भूमिका अदा कर रहा है। असम में 'घुसपैठियों' को खदेड़ने के
अटल बिहारी बाजपेयी के आह्वान पर 1983 में नेल्ली
नरसंहार के ध्रुवीकरण की विरासत को भुनाने के लिए उसी नारे के साथ मोदी-शाह जोड़ी
ने सैकड़ों करोड़ के खर्च से वहां नागरिकता
रजिस्टर अभियान शुरू किया, घोषित 19 लाख अवैध नागरिकों
में 15 लाख गैर-मुसलिम निकले जिसने संघ परिवार की ध्रुवीकरण
का समीकरण गड़बड़ा दिया। 15 लाख गैर
मुस्लिम नागरिकों को शरणार्थी बनाकर भविष्य में नागरिकता का लालीपॉप देकर नागरिकता
संशोधन अधिनियम (सीएए) के जरिए नफरत की सियासत को अंजाम देने के मंसूबे के विरुद्ध पर असम के आवाम के पद चिन्हों पर जामिया के
छात्रों ने जंगे-आजादी का ऐलान कर दिया तथा पुलिस के बर्बर दमन का बहादुरी से
सामना किया। जामिया के छात्रों पर बर्बरता के खिलाफ पूरा मुल्क आंदोलित हो उठा।
मुसलमानों को निशाना बनाकर उप्र सरकार इसे सांप्रदायिक रंग में रंगने की कोशिस कर
रही है लेकिन उनकी चाल आवाम समझ गया है। अब दमन कितना भी बर्बर हो लेकिन जनसैलाब
का जो दरिया झूम के उट्ठा है वह अब पुलिसिया दमन के तिनकों से न रोका जाएगा। आजाद
भारत में इतनी व्यापक भागीदारी का यह पहला
आंदोलन है। जैसा ऊफर कहा गया है, इस आंदोलन की खास बात यह है कि इसकी अगली कतारों
में महिलाएं हैं। ओखला के शाहीन बाग में कड़कती ठंढ में दिन-रात स्त्रियां धरना दे रही हैं।
कर्नाटक में पुरुषों पर पुलिसिया दमन से मोर्चा लेने महिलाएं उनके गिर्द घेरा
बनाकर प्रदर्शन कर रही हैं। पुलिस की बर्बरता 2 दर्जन जानें
ले चुकी है, लेकिन आवाम
फैज की पंक्तियां -- सर भी बहुत बाजू भी बहुत, कटते भी रहो
बढ़ते भी रहो -- दुहराते बढ़ता ही जा रहा है।
इस लेख का समापन लगभग आधे दशक की अंधेरी सुरंग से निकल कर मुल्क के इतिहास में
राष्ट्रव्यापी जनांदोलन के इस नए बिहान में, 2020 से शुरू एक रोशन, अमन-चैन के
दशक और क्रांतिकारी शताब्दी की यात्रा की कामना के साथ करना वाजिब होगा।
27.01.2019
समयांतर, फरवरी 2020
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