Thursday, February 6, 2020

फुटनोट 355 (जीने का लुत्फ)

Ali Javed
7 hrs ·
"बेज़मिरी,बेईमानी,अनैतिकता के इस माहौल में कितना अच्छा होता कि ज़मीन इस भुकम्फ के साथ हमें निगल ले!"

'अबे उज़बक, दिमाग खराब है तुम्हारा पता नहीं क्या ऊल-जलूल बकते रहते हो. धरती फट जाय और सब उसमें समा जाए. लगता है तुम्हारे शरीर में सीता माता की आत्मा प्रवेश कर गयी है. तुम्हें मालुम नहीं क्यों है ये बेज़मिरी-बेईमानी का माहौल? क्यों है ये सामाजिक चेतना का चिंताजनक स्तर? तुम सठिया गए हो (वैसे मैं तो इकसठिया गया हूं) और भूल गए हो कि ज़िंदा क़ौमें कभी विकल्पहीन नहीं होतीं. आज के हालात के लिए 'हम' भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. जो निकले थे मानव-मुक्ति की अलख जगाने, वातानुकूलित में चुनावी समीकरण-असमीकरण के चक्कर में उलझकर किंकर्तव्यिया गए. नमाज भी पढ़ते रहे लाल सलाम भी लगाते रहे सत्यनारायण की कथा सुनकर पंजीरी भी खाते रहे, इंटरनेसनल भी गाते रहे. खैर दलीय, निर्दल, दलछुट हर तरह के 'वाम' के लिए गंभीर आत्मावलोकन की गंभीर जरूरत तो है, लेकिन यह वक़्त सार्वजनिक मंच पर आत्मगलानि व्यक्त करने का नहीं है, सोचने और लड़ने का है. सोचने का है कि जब हम तर्क-विवेक के आधार पर धरती को स्वर्ग बनाने के सपने को साकार करने, शोषणमुक्त समाज बनाने निकले थे, लगभग तभी संकीर्णतावादी ताकतें भी परंपरा और आस्था के नाम पर किसी कल्पित अतीत में स्वर्ग का अनुसंधान करने निकली थी. वे कहां से कहां पहुंचे और हम कहां से कहां. लेकिन यह व्यापक विमर्श का अर्जेंट विषय तो है मगर साथी, फिलहाल, बुलंद हौसले से समय के इतिहास के इस अस्थाई उतार को झेलते-पंगे लेते; मानवता-मुक्ति के अनवरत अभियान में, शक्ति की अपनी सीमाओं में अपना योगदान करते आखिरी सांस तक जीने का लुत्फ उठाना है.'

07.02,2017

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