Friday, February 21, 2020

बेतरतीब 60 (गणित)

स्कूल में जब सुनता था कि कोई गणित में फेल हो गया तो ताज्जुब होता था गणित जैसे सीधे-सरल-तार्किक विषय में कोई कैसै फेल हो सकता है। 20 से आगे की किसी भी संख्या का पहाड़ा आने से मेरा गदहिया गोल (प्रीप्राइमरी) से कक्षा 1 में प्रोमोसन हो गया था तथा डिप्टी साहब (डीआईओएस) के मुआइने के दौरान गणित के किसी मौखिक सवाल का जवाब देने से कक्षा 4 से 5 में। इसके चलते प्राइमरी बहुत कम (9साल) उम्र में पास कर लिया तथा हाईस्कूल की न्यूनतम उम्र पूरा करने के लिए हेड मास्टर ने टीसी में उम्र ज्यादा लिख दी और नियत आयु से एक साल 4 महीने पहले रिटायर हो गया। खैर...., टीडी इंटर कॉलेज (जौनपुर) में इंटर में हमारे गणित के शिक्षक, रंजीत सिंह, गणित के बारे में कहा करते थे "एकै साधे सब सधै"। अपने व्यक्तित्व निर्माण में मुझे गणित की भूमिका विश्लेषणात्मक परिप्रेक्ष्य में मददगार की लगती है। जीवन निर्वाह में गणित की भूमिका, 18 साल की उम्र में पिताजी से आर्थिक संबंध विच्छेद के बाद आजीविकोर्पाजन के साधन की रही है। यह बात विश्वास से कह सकता हूं कि किसी शहर में गणित जानने वाला भूखो नहीं मर सकता। इलाहाबाद में इवि में इतिहास के एक प्रोफेसर जीपी (शायद) त्रिपाठी की बेटी को ट्यूसन पढ़ाया था। 21 साल की उम्र में, खाली हाथ. आपात काल में भूमिगत रहने की संभावनाएं तलाशते दिल्ली आया था और बिना किसी की 'चवन्नी की चाय' का एहसान लिए अपनी पढ़ाई की तथा भाई-बहन की पढ़ाई का जिम्मा निभाया। राजनीति शास्त्र में शोध के दौरान लाइब्रेरी में नोट लेते समय कई बार गणित के प्रतीकों (सिंबल्स) का इस्तेमाल करता था। जब मैं जेएनयू में राजनीतिशास्त्र में शोध-छात्र था तो डीपीएस (आरकेपुरम्) में ग्यारहवी-बारहवीं कक्षा को गणित पढ़ाता था। इस नौकरी के 'ऑफर' की अलग कहानी है, जो फिर कभी। दिवि में सोसिऑलजी की प्रो. नंदिनी सुंदर डीपीएस में मेरी स्टूडेंट थीं। कलम की आवारागर्दी में ऐके ही होता है, बात गणित के महत्व की हो रही थी, मैं आत्मकथा लिखने लगा। मैं गणित की अपनी पहली क्लास में कहता था, "Mathematics is that branch of knowledge, which trains our mind for clear thinking and reasoning". वापस गणित के इतिहास पर आते हैं तो पाते हैं कि प्रचीन काल में पाइथॉगोरस, आर्यभट्ट तथा आधुनिक काल में डेकार्त एवं न्यूटन के योगदान अतुलनीय बना रहेगा। कैलकुलस ने जटिलतम गणनाओं को सरलतम बना दिया। शिक्षा को दार्शनिक शासन के आदर्श राज्य की बुनियाद माननेवाले प्राचीन राजनैतिक दार्शनिक प्लैटो ने अपने विद्यालय 'एकेडमी' के गेट पर तख्ती लगा रखा था कि गणित न जानने वाले का प्रवेश वर्जित है। गणित जैसे सरल-तार्किक विषय को तमाम शिक्षक इतने अगणितीय तरीके से पढ़ाते हैं कि बोझल और कठिन लगने लगता है। 1985 में डीपीएस छोड़ने के बाद तय किया कि जब तक भूखों मरने की नौबत न आए गणित का इस्तेमाल धनार्जन केलिए नहीं करूंगा और 35 सालों से गणित की किताब नहीं छुआ, मौका ही नहीं मिला और आगे भी कोई गुंजाइश नहीं है। Raj K Mishra जीवनोपयोगी गणित पढ़ना हो तो Rajesh Kumar Singh की मदद से अमूर्त (ऐब्स्ट्रैक्ट/मॉडर्न) अल्जेब्रा पढ़ लें वेक्टर स्पेस और टोपोलॉजी उसी के विस्तार हैं।

मैं गणित संयोगात पढ़ता गया। मिडिल (जूनियर हाई) स्कूल अपने गांव से 7-8 किमी दूर के गांव लग्गूपुर स्थित, जूनियर हाई स्कूल पवई से किया। 12 साल में मिडिल पास कर लिया, पैदल की दूरी पर हाई स्कूल नहींथा तथा साइकिल पर पैर नहीं पहुंचता था। blessing in disguise, सो शहर (जौनपुर) पढ़ने चला गया। पढ़ने में अच्छे बच्चे साइंस लेते थे सो साइंस ले लिया। उस समय 9वीं क्लास में ही वि।य चुनने का विकल्प था, जीवविज्ञान के बदले संस्कृत ले लिया। 11वीं में फिर गणित ग्रुप में साइंस ही लेना था। जब विश्वविद्यालय (इलाहाबाद) गया तो बीएससी (फिजिक्स, मैथ्स, केमिस्ट्री) ही लेना था क्योंकि मुझे लगा कि बीए के कोई विषय तो मुझे आते नहीं थे। एमएससी गणित में इसलिए और भी किया कि इसमें प्रैक्टिकल नहीं था। आपातकाल में भूमिगत रहने की संभावनाएं तलाशते दिल्ली आ गया तथा इलाहाबाद के सीनियर डीपी त्रिपाठी (दिवंगत) को खोजते जेएनयू पहुंचा। वे तो तिहाड़ में थे, इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर मिल गए, रहने का जुगाड़ हो गया, रोजी रोटी के लिए गणित के ट्यूसन। ट्यूसन खोजने की भी कहानी है, फिर कभी। एक मिल गया फिर तो मिलते रहे। आपात काल के बाद जेएनयू में राजनीतिशास्त्र में एमए में एडमिसन ले लिया तथा गणित के ट्यूसन से खर्च चलता था। अगली साल छोटे भाई को भी जेएनयू में फ्रेंच भाषा के 5 साला एमए में प्रवेश दिला दिया। पॉलिटिकल एक्टिविस्ट था सो सोचा पोलिटिकल साइंस पढ़ना चाहिए, बाद में लगा कि अर्थशास्त्र पढ़ना चाहिए था, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।

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