इस ग्रुप में सबको मेरे संघी अतीत की बात मुझसे ही मालुम हुई है. गांव का पहली पीढ़ी आधुनिक शिक्षा में प्रवेश करने वाला कर्मकांडी ब्राह्मण परिवेश पला 17 साल का बालक, नेतागीरी के चक्कर में छद्म राष्ट्रवाद के गड्ढे में गिर गया, लेकिन इंसान से भूल हो जाती है, जिसे सुधारता भी वही है । साल भर में ही गलती सुधार कर लिया और उस गड्ढे से निकल सका। मेरे साथ तो विडंबना यह थी कि मैंने विद्यार्थी परिषद तब ज्वाइन किया जब लगभग नास्तिक हो चुका था। तो, मैं जिन्ना और सावरकर की तरह धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। अतीत से सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए, अतीत में महानता की तलाश भविष्य के साथ साजिश है। नमस्तते सदा वत्सले किया तो है लेकिन बहुत कम, क्योंकि ड्रिल से मुझे शुरू से ही अरुचि थी। विद्यार्थी परिषद को बैद्धिक भी संघ के प्रचारक ही लेते थे। बौद्धिकों की दुर्बुद्धि की बातों से ही मोहभंग भी शुरू हुआ। एक बार तो एक प्रचारक ने, (नाम अभी नहीं बताऊंगा वह आजजकल विहिप का बड़ा नेता है) औरंगजेब के हाथों इतने जनेऊ जलवा दिए जितने उस समय उसकी सलतनत की कुल आबादी के पहनने से कई गुना ज्यादा होते, जब कि आबादी की 12-14% ही जनेऊधारी रही होगी। बौद्धिक में सवाल पूछने की परंपरा नहीं थी। बाद मेंपूछने पर 60 मन वजन घटाकर 6 मन कर दिया था।
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