अंतिम सत्य नहीं होता, सत्य सापेक्ष होता है; अंतिम ज्ञान नहीं होता, ज्ञान एक निरंतर फ्रक्रिया है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है और हमें पाषाण यग से साइबर युग तक ले जाता है। अतीत में अंतिम ज्ञान की निर्धारण भविष्य के विरुद्ध साजिश है। आप जिस दर्शन की बात कर रहे हैं वह आध्यात्मिक, आदर्शवादी दर्शन है जो शब्दाडंबर से गोलमटोल तर्क गढ़ता है, जो कहता है जो है वह नहीं है और जो नहीं है वह है। आदर्शवादी दर्शन विचारधारा यानि मिथ्या चेतना होता है, जो दृश्य जगत को मिथ्या और अदृश्य जगत को सार मानता है। प्लैटो का आदर्शवाद तथा शंकर का अद्वैतवाद के दर्शन इस कोचि में आते हैं। इसके समानांतर द्वद्वात्मक भौतिकवाद का दर्शन है जो जो है वह है के सिद्धांत पर दृश्य जगत को सत्य का अंश मानता है तथा विचारों के अदृश्य जगत को इसकी व्युत्पत्ति तथा दोनोंके द्वंद्वात्मक मिलन से यथार्थ की समग्रगता का निर्माण होता है। यह दर्शन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है। प्राचीन भारतीय चारवाक लोकायत दार्शनिक परंपरा द्वंद्वात्मक भौतिक दर्शन के प्राचीनतम रूपों में है।
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