Wednesday, January 8, 2020

बचपन 14

मैं पहली बार तफरीह में कलकत्ता चला गया. 1968-69 की बात है, जौनपुर में हाईस्कूल में पढ़ता था. मेरे एक सहपाठी के पिता रेलवे में स्टेसन मास्टर थे. उनके परिजनों को अस्थाई पास मिलता था. जिसमें रेलवे के कागज पर नाम और उम्र लिख कर मुहर लग जाती थी. मैंने उससे कलकत्ते का पास बनवा लिया. मेरे गांव के एक सज्जन स्कूल में पढ़ाते थे और मानिकतल्ला के आसपास किसी (नाम याद नहीं आ रहा है) घोष रोड का पता था.किसी ट्रेन में फर्स्ट क्लास में (टिकट लेकर थर्ड में चलते थे) सियालदह पहुंचा. रात में आरामदायक फर्स्ट वेटिंग रूम में प्लेटफार्म से पूड़ी-आलू खाकर सो गया. सुबह नहा-धोकर रिक्शा लिया. मेरा मन बैठने का नहीं हो रहा था, लेकिन पते तक पहुंचना था. मेरे गांव के सज्जन कविता लिखते थे. उनके पते पर पहुंचने के रास्ते में ही एक चाय की दुकान पर दिख गए. मैं किराया देकर दुकान में चला गया, देखा एक उलझे दाढ़ी वाले आदमी के इर्द-गिर्द बैठे कुछ कहानी कविता की बात हो रही थी, मैं कुछ समझा नहीं. मेरे गांव के सज्जन ने मेरा परिचय कराया कि मैं उनके गांव का बहुत होनहार बालक था और मुझे उनके बारे में बताया कि वे बाबा नागार्जुन थे. 'बादल को घिरते देखा है' हमारे कोर्स में थी. इतने बड़े कवि, इतने सरल. मैंने चरणस्पर्श करना चाहा, उन्होंने पकड़ कर गले लगा लिया. 1977 के बाद जेयनयू मेंं तो बाबा घर की मुर्गी की तरह थे, नागार्जुन को नमन. कलकत्ते की बात पर ऐसे ही याद आ गई।

09.01.2017

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