Wednesday, January 8, 2020

लल्ला पुराण 330 ( इवि से जेएनयू)


Satish Tandon आप निजी अपने ऊपर न लें, मैंने 47 साल पहले इवि में प्रवेश लिया और43 साल पहले छोड़ा और उसके एक साल बाद जेएनयू में प्रवेश लिया, उस समय नई यूनिवर्सिटी होने से प्रवेश मिल गया आज की तरह 60 सीट के लिए 36000 आवेदक होते तो मिलता कि नहीं, पता नहीं। लेकिन वहां पढ़ने के बाद व्यक्तित्व में विवेकशील पूर्णता का एहसास हुआ। जेएनयू के पहले दशक का छात्र होने के नाते यह कह सकता हूं यह महज मूर्ख ही सोच सकता है कि कोई वाम या दक्षिण वहां के छात्र ऊर्जा का प्रयोग कर सकते हैं। ऐसा सोचना जेएनयू जाने से वंचित लोगों की जहालत पूर्ण कुंठा ही हो सकती है। सादर। जेएनयू एक विचार है, विचार मरता नहीं फैलता है इतिहास रचता है, जो इवि समेत सभी विशिवविद्यालयों में फैल रहा है। पुनः सादर।

इलाहाबाद जैसे सामंती कैंपस से, जहां लड़की का मतलब माल होता था और छात्रनेता का मतलब लफ्फाज या बागुबली, जेएनयू पहुंचकर जो तमाम सुखद आश्चर्य हुए उनमें यह भी था कि सीरियस स्कॉलर किस्म के लड़के-लड़कियां ही छात्र राजनीति में थे, चुनावी सभाओं में छात्र कलम-नोटबुक के साथ बैठते और नोट लेते थे। वक्ता मार्क्स,हेगेल, बुद्ध, कालिदास और कौटिल्य के उद्धरण देते थे। छात्रसंघ का संविधान ऐतिहासिक दस्तावेज है, 1978 में जिसके संशोधन की ड्राफ्टिंग कमेटी में होने का मुझे भी सौभाग्य मिलाम था। एक चुनाव स्टालिन बनाम ट्रॉट्स्की हो गया था। जिस पर हम लोगों ने कई चुटकुले बनाए थे। फिर कभी।

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