एक ग्रुप में सीएए आंदोलन पर 2 कमेंट:
यह एक अलग किस्म का नव जागरण है, 1857-58 के बाद दो प्रमुख समुदायों की एकता की मिशाल। 1857-58 की एकता से आतंकित अंग्रेज शासकों ने धार्मिक आधार पर बांटो-राज करो की नीति अपनाया, यह आंदोलन देशी शासकों की उस चाल को नाकाम कर रहा है।हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के भजन की शाह-मोदी की चालें नाकाम हो रही हैं। हिंदू-मुस्लिम राजी तो क्या करेगा नाजी। डर और आशंका निर्मूल नहीं है, पूरा देश असम बनने से बचना चाहता है। आंदोलन के परिणाम भविष्य के गर्भ से निकलेंगे। राजनैतिक पार्टियों और मजहबी ठेकेदारों की अनुपस्थिति एक सकारात्मक बात है।
सौभाग्य से यह आंदोलन अभी तक राजनैतिक पार्टियों के नेताओं से बचा हुआ है, यह आंदोलन सामासिक संस्कृति तोड़ने वालों के भी खिलाफ है. अकबरुद्दीन की कोई नहीं सुन रहा है न ही भूतपूर्व छात्रों के प्रायोजित बयान को कोई तवज्जो दे रहा है। मोजदी-शाह-योगी पूरी कोशिस इसे अपने एकमात्र हिंदू-मुस्लिम नरेटिव में ढालने की पूरी कोशिस कर रहे हैं, लेकिन लोग इनके तोड़ने की कोशिस नाकाम कर रहे हैं। शाह ने लखनऊ में कहा कुछ लोग खास समुदाय में भ्रम फैला रहे हैं लोग उनके शगूफे का जवाब कौमी एकता से दे रहे हैं, शाहीन बाग की औरतों ने बाग के मायने बदलकर बगावत कर दिया, हर जगह पहुंच रहा है शाहीन बाग -- लखनऊ, इलाहाबाद... पटना। जैसा मैंने ऊपर कहा कि यह कौमी एकता 1857-58 की क्रांति की याद दिलाती है। वीडियो में लखनऊ के घंटाघर में नारे लगाती लड़कियों के जज्बे देख कर भावुक हो गया। यह डर के विरुद्ध संचित आक्रोश है, चरम पर पहुंच कर डर खत्म हो जाता है, इश आंदोलन का कोई नेता नहीं, सब नेता हैं। ये नए जमाने की लड़कियां हैं, इन्हें भाई-बाप की सुरक्षा नहीं चाहिए, आजादी चाहिए, भाई-बाप को सुरक्षा देने की आजादी।
No comments:
Post a Comment