बंगाल के पूर्व शिक्षामंत्री कांति विश्वास की जीवनी से झांकते दलितों के व्यक्तित्व व विद्वता के प्रति भौतिक शास्त्री, मुरलीमनोहर जोशी या बंगाली भद्रलोक के पूर्वाग्रह, अपवाद नहीं बल्कि सवर्ण सामाजिक चेतना का अभिन्न अंग है. 2 बार मैं चमार होने के दावे के चलते पिटते-पिटते बचा हूं. बचपन से ही टांग अड़ाने की आदत है तथा अक्सर एक-बनाम-सब बहस में उलझ जाता हूं.
1985-1987 के दौर की कभी की घटना है. उस समय इस पर एक कहानी लिखना चाहता था लेकिन अभी तक नहीं लिख पाया. 1984 के दिल्ली के सिख-जनसंहार के बाद साँप्रदायिक रक्षात्मकता के तहत गांधीवादी समाजवाद का शगूफा छोड़ने वाली भाजपा आक्रामक सांप्रदायिकता का रुख अख्तियार कर रही थी. जैसा कि अब इतिहास बन चुका है राममंदिर मुद्दे को बस्ते से निकाला गया. दीवारों “गर्व से कहो हम हिंदू हैं” जैसे धर्मोंमादी नारे लिखे जा रहे थे. देश में जगह-जगह मंदिर के लिए शिलापूजन के कार्यक्रमों तथा धर्मोंमादी सभाओं का आयोजन हो रहा था. आडवाणी, जोशी, उमा भारती आदि घूम-घूम कर उंमादी जनमत तैयार कर रहे थे. मेरी बहन बनस्थली (राजस्थान में जयपुर से 70 किमी) में पढ़ती थी. मैं उससे मिलने या किसी छुट्टी में लेने जा रहा था. रात साढ़े 11 की बस दिल्ली से लिया. अगले दिन जयपुर आडवानी जी आने वाले थे. बस सिंधीगेट बसअड्डे की बजाय डिपो जाकर रुकी तथा अगले दिन जयपुर से जाने वाली बसें बंद थीं. मनमानी रेट पर ऑटो वाले ने रेलवे स्टेसन पहुंचाया. ट्रेन में सार्जनिक बहस का मुद्दा अडवाणी की यात्रा तथा मंदिर और मुसलमान शासकों की क्रूरता थी. आदतन, मान-न-मान-मेहमान की तर्ज़ पर टांग फंसा दिया. फिर क्या था छिड़ गया एक-बनाम-सब विमर्श जो धीरे-धीरे बहुत उग्र हो गया. एक लगभग मेरी ही उम्र का लड़का बांहे चढ़ाते मेरी तरफ बढ़ा और बोला कि इतनी ऊंच-नीच, जात-पांत की बात कर रहा हूं, अपनी बहन-बेटी की शादी चमार से कर दूंगा क्या? उस मूर्ख से जेंडर विमर्श व्यर्थ था,बांहे नाचे करने को कह मैंने कह दिया कि मैं तो खुद चमार हूं. इस वाक्य ने रामबाण का काम किया. उग्र आक्रामक बहस मर्यादित हो गयी.
13.01.2016
No comments:
Post a Comment