Wednesday, January 15, 2020

लल्ला पुराण 236 (वाम 1)

शुक्रिया Amritanshu Pandey जी, आपने विमर्श की अच्छी शुरुआत की है, इसके पहले के कमेंट्स तो आंय-बांय किस्म की भड़ास वाले हैं। एक बार पहले भी इस विषय पर विमर्श शुरू किया गया था तो Rajesh Kumar Singh ने इसकी इस ऐतिहासिक उत्पत्ति से विमर्श को सही दिशा में ले जाने की कोशिस की थी, लेकिन कई लोगों ने विषयांतर से उसे विकृत कर दिया। आपके दूसरे कमेंट पर बहस हो सकती है कि सही या गलत हाथ का निर्धारण कैसे होगा। आपसे बिल्कुल सहमत हूं कि इस अवधारणा की शुरुआत 1789 की युगकारी फ्रांसीसी क्रांति के समय के एक ऐतिहासिक संयोग से हुई। राजा के समर्थक संसद में दाहिनी विंग में बैठे थे तथा क्रांति समर्थक बाईं। वामपंथ प्रगतिशील, परिवर्तनकामी तथा दक्षिणपंथ संकार्णतावादी (कंजर्वेटिव), यथास्थितिवादी ताकतों की व्यापक तथा सापेक्ष कोटियां हैं। साथियों से आग्रह है कि विमर्श को यहां से आगे बढ़ाया जाए।

अखिलेश कुमार तिवारी बिल्कुल सही कह रहे हैं, यथास्थिति के विपरीत परिवर्तन की विचारधारा के रूप में तो वामपंथ का अस्तित्व तो अनादिकाल से रहा है लेकिन ऐतिहासिक अवधारणा के रूप में यह परिभाषित हुआ 1789 की क्रांति के वक्त, मार्क्स के जन्म से लगभग 2 दशक पहले। समतामूलक, सामूहिकतावादी विचारों के बावजूद यह सामंतवाद के विरुद्ध पूंजीवादी संक्रमण की क्रांति थी, समानता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे का नारा नवोदित पूंजीवादी (तब मध्य) वर्ग के लिए था। सर्वहारा की अवधारणा, पूंजीवाद की ही तरह भ्रूणावस्था में थी जिसे पहली व्यावहारिक अभिव्यक्ति मिली फ्रांस की अगली, 1848 की क्रांति में। क्रांति निरंतर प्रतिक्रिया है, प्रतिक्रांति भी। अभी तक की क्रांतियां अल्पसंख्यक वर्ग की क्रांतियां रही हैं, सर्वहारा क्रांति ही बहुसंख्यक वर्ग की, मानव मुक्ति की क्रांति होगी। 1789 की क्रांति के बाद क्रांतिकारियों के पास गणतात्रिक, राजनैतिक पुनर्निर्माण का कोई मॉडल था। प्राचीन उत्तरवैदिक गणतंत्र और एथेंस का प्रत्यक्ष जनतंत्र छोटे-ठोटे समुदायों के लिए थे। रॉब्स पियरे के नेतृत्व में नया शासन नया करना चाहता था, पारंपरिक सोच बदले बिना परंपराओं को तोड़ते हुए जो उचित समझता था उसे बलपूर्वक लागू करना शुरू किया तथा सामूहिक नेतृत्व की जगह डायरेक्टरेट व्यवस्था ने ले ली। रूसो की अमूर्त, नैतिक शासनिक इकाई, सामान्य इच्छा (जनरल विल) के अलावा कोई सैद्धांतिक मॉडल भी नहीं था। 1797 में नेपोलियन ने हेराफेरी से डायरेक्टरेट से सत्ता अपने हाथों में हथिया लिया तथा विश्वविजय की युद्धोंमादी राष्ट्रवाद की भावना पैदाकर खुद को सम्राट घोषित कर दिया। क्रांति की बिखरी चिंगारियां फिर अंगार बनने लगीं जिसकी परिणति 1848 की क्रांति में हुई जिसमें 1849 में बहुमत की हेरा फेरी से सत्ता लुई बोनापार्ट ने हथियाकर 1851 में संसद को भंग कर खुद को राजा घोषित कर दिया, जिसका अंत 1871 में पेरिस कम्यून के उत्थान-पतन के साथ हुआ। (जारी) विस्तृत वर्णन मैंने 'समयांतर' में 'समाज का इतिहास' शीर्षक की 9 लेखों की लेखमाला (मार्च -नवंबर 2017) के पहले दो भागों में किया है।
16.01.2020

हर अवधारणा का अपना ऐतिहासिक संदर्भ होता है तथाबहुत से विचार देश-काल की सीमाओं से मुक्त होते हैं। चाणक्य नहीं कौटिल्य शासनशिल्प केअप्रतिम विद्वान हुए हैं जिनका अर्थशास्त्र एक वामवराजशाही स्थापित करने तथा चलाने का परामर्श है, मेरे परदादा ने घी खाया था मेरा गट्टा सूंघ लो कूपमडूपता किस्म की संकीर्णता है। आधुनिक इतिहास समझने के जो संदेश 1789, 1917 या 1949 की क्रांतियों से मिलते हैं वे 2300 साल पहले के संदर्भ में लिखे शासनशिल्प के ग्रंथ में नहीं मिल सकता। बुरा मत मानिएगा, मैं गलत हूं तो सुधारिएगा, लेकिन मुझे लगता नहीं कि आपने कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ा है या उपरोक्त क्रांतियों की समीक्षा की है, वाम विचारधारा क्या नहीं कर पाई है? दक्षिण के नाम पर क्या आक्रामक विरोध करती है? विचारधारा अमूर्त संज्ञा है, वह कुछ करती नहीं। फतवे जारी करने की बजाय कभी कभी टेक्स्ट की समीक्षा फलदायक होती है।


मैं अपने उन चंद छात्र-मित्रों को ज्यादा प्यार से याद करता हूं जिन्होंने कभी कुछ असहज सवाल पूछा। पहली ही क्लास में मैं उन्हें कहता हूं कि Key to any knowledge is questioning; question anything and everything, beginning with the own mindset. यदि कोई छात्र मुझ पर सवाल करता है तो मुझे एक शिक्षक के तौर पर इसे अपनी सफलता मानता हूं। लेकिन आप सवाल नहीं पूंछते आप तो बारी बारी या एकसाथ फैसलाकुन वक्तव्य देते हैं: मार्क्सवाद एकखूनी विचारधारा है; स्टालिन सबसे बड़ा नरसंहारी है; माओ ने करोड़ों हत्याएं की। मैं यही कहता हूं इन पर अलग थ्रेड पर तथ्य-तर्कों से विमर्श हो, जवाब तो सवाल के होते हैं। सवाल पूछिए जरूरी नहीं मुझे जवाब मालुम हो, नहीं होगा तो मालुम करने की कोशिस करूंगा।


Arvind Rai आप मार्क्सवाद को खूनी विचारधारा घोषित करने की हड़बड़ाहट में सुचारु चल रहे विमर्श को विकृत कर रहे हैं, मार्क्सवाद पर विधिवत बहस की जाएगी।

अभी तक के विमर्श में हमने देखा कि वामपंथ परिवर्तनकामी धाराओं की एक सापेक्ष अवधारणा है, मसलन संकीर्णतावादी (पोंगापंथी) ताकतों के लिए उदारवादी (इंगलैंड के संदर्भ में ( टोरी के लिए लिबरल) वामपंथी हैं जब कि मजदूरपक्षी दल (लेबर) के लिए दक्षिणपंथी। तमाम लोग दक्षिणपंथ के पोंगापंथी अभिधान (connotation) से अनभिज्ञ अपने को दक्षिणपंथी कहते हैं।

वामपंथ की इस चर्चा में चलिए अब Arvind Rai जी के सरोकार, मार्क्सवाद पर आते हैं, बीच के विकास क्रम को छोड़ते हुए। 1848 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टों के प्रकाशन के बाद मार्क्स तथा मार्क्सवाद वामपंथ के संदर्भ विंदु बन गए। 1864 में मजदूरों के प्रथम अंतरराष्ट्रीय संगठन (फर्स्ट इंटरनेसनल) में 3 प्रमुख धाराएं थीं, गुप्त सशस्त्र साजिश से सत्ता पर कब्जा करके अर्थव्यवस्था संशोधित करने के हिमायती, 'समानता की साजिश' के सिद्धांत वाले फ्रांसीसी क्रांतिकारी ब्लांकी के समर्थक, प्रूदों तथा बकूनिक के अराजकतावादी समर्थक तथा वर्गचेतना से लैस सर्वहारा क्रांति के प्रतिपादक मार्क्स-एंगेल्स एवं उनके समर्थक। अराजकतावादी पेरिस कम्यून (1871) तक प्रमुख क्रांतिकारी ताकत थे। मार्क्स और मार्क्सवाद की चर्चा के साथ अराजकतावाद पर संक्षिप्त चर्चा वाजिब है। दूसरे इंटरनेसनल (1889) के बाद से वामपंथ की सारी धाराएं मार्क्सवाद को अपना वैचारिक श्रोत मानने लगीं, जैसे इस समय कई संगठन मार्क्सवाद की विचारधारा के दावेदार हैं, पांड़ौ में पांड़ा (पांडेय में पांडेय) की तर्ज पर भांति-भांति के लाल हैं तथा सब अपने को ही असली क्रांतिकारी मानते हैं।

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