Friday, January 31, 2020

लल्ला पुराण 247 (श्रद्धानंद का हत्यारा)

एक ग्रुप में सरकार समर्थक एक सज्जन ने लिखा श्रद्धानंद सरस्वती के हत्यारे, राशिद को गांधी जी ने बचा लिया था, गांधी की इस बात का मैं समर्थन करता हूं कि विरोध? उस पर:

श्रद्धानंद के हत्यारे राशिद को गांधी ने बचा लिया था, गांधी तो इस सवाल का जवाब देने के लिए हैं नहीं। राशिद से ही एक नरपिशाच ने उनकी हत्या कर दी थी। मैं गांधी का प्रवक्ता तो हूं नहीं, गांधी का मूल्यांकन उन्ही के मानदंडों पर करता हूं। गांधी की सोच में गड़बड़ी द्वंद्वात्मकता के अभाव के चलते है। गांधी पाप से घृणा करते थे पापी से नहीं, यदि वे गोडसे की गोली लगने के बावजूद बच जाते तो उसे भी बचाते। हत्यारे के नाम राशिद की जगह अरविंद राय होता तब भी गांधी वही स्टैंड लेते। हर बात ब्लैक एंड व्हाइट नहीं होती, मैं न गांधी के समर्थन में हूं न विरोध में, न ही 94-95 साल बाद उसके समर्थन-विरोध से कोई फर्क पड़ता है। संयोग से स्वामी श्रद्धानंद का हत्यारा राशिद था रामनारायण भी हो सकता था, क्योंकि कर्मकांडी ब्राह्मणवाद आर्यसमाज को अपना उतना ही दुश्मन मानता था, जितना इस्लामी कट्टरपंथ। यदि हत्यारा रामनारायण होता तो आप यह सवाल न पूछते। गांधी का हत्यारा नाथूराम की बजाय अरशद होता तो क्या होता? गांधी की हत्या के बाद ब्रह्मणों या चितपावन ब्राह्मणों पर कोई हमला नहीं हुआ? इंदिरा गांधी का हत्यारा अगर बिना पगड़ी वाला होता तो क्या जातीय नरसंहार होता? यह सामुदायिक अस्मिता की प्रवृत्ति निर्धारण हमारे दिमागों में जातीय-मजहबी पूर्वाग्रह इस कदर भर देता है कि हम विवेकशील इंसान की तरह सोच ही नहीं पाते। बाकी दूसरों का जानबूझकर समय नष्ट करने की बजाय पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से ऊपर उठकर, हिंदू-मुसलमान से इंसान बनकर अपने सवालों का जवाब कुध खोजेंगे तो बेहतर जवाब तो मिलेगा ही, सुकून भी मिलेगा। मेरे बड़े भाई को मुसलमान शब्द से आपसी हीचिढ़ है, उनसे मैंने पूछा कि हम कितने भाई हैं? एक ही मां-बाप के दो बेटे जब एक जैसे नहीं होते तो करोड़ों बिहारियों, मुसलमानों या जाटों की समरस कोटियां कैसे बन सकती हैं। सादर।

Friday, January 24, 2020

ईश्वर विमर्श 89 (बुद्ध और रामायण)

मिथकीय इतिहासबोध के चलते अपने ही ग्रंथों के साक्ष्यों को नजरअंदाज कर लोग उन्हे और उनके कथानक को अतिप्रचीन प्रचारित कर महिमामण्डित करते हैं। ‘वाल्मिकी-रामायण’, ‘बुद्ध’ के बाद लिखी गयी थी, इसका प्रमाण स्वयं ‘रामायण’ ही है।

‘वाल्मिकी रामायण’ मे ऐसे कईं श्लोक हैं, जो तथागत बुद्ध और बौद्ध धर्म के खिलाफ लिखे गये है। वाल्मीकि रामायण के ये श्लोक, इस तथ्य की स्पष्ट पुष्टि करतें है, कि रामायण, गौतम बुद्ध और ‘बौद्ध धम्म’ के बाद लिखी गयी है।

ऐसे ही कुछ श्लोक ‘आयोध्या-कांड’ में है । यहां पर लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने के फेर में ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए, राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत नास्तिक और कईं अपमानजनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।

यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं , जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण (गीता प्रेस गोरखपुर) से कर सकते हैं :-

उग्र तेज वाले नृपनंदन श्रीरामचंद्र, जावाली के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे फिर बोले :-

“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।

बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”

– अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।।
[ हे जावाली! मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ रखा। क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।]

“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्ध स्तथागतं।

नास्तिक मंत्र विद्धि तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम्

स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् ।।”

-(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / Page :1678 )

[जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है । ‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे।]

इससे साफ है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी ना कि बुद्ध सेहजारों साल पहले।

25.01.2019

लल्ला पुराण 246 (सीएए)

एक ग्रुप में सीएए आंदोलन पर 2 कमेंट:

यह एक अलग किस्म का नव जागरण है, 1857-58 के बाद दो प्रमुख समुदायों की एकता की मिशाल। 1857-58 की एकता से आतंकित अंग्रेज शासकों ने धार्मिक आधार पर बांटो-राज करो की नीति अपनाया, यह आंदोलन देशी शासकों की उस चाल को नाकाम कर रहा है।हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के भजन की शाह-मोदी की चालें नाकाम हो रही हैं। हिंदू-मुस्लिम राजी तो क्या करेगा नाजी। डर और आशंका निर्मूल नहीं है, पूरा देश असम बनने से बचना चाहता है। आंदोलन के परिणाम भविष्य के गर्भ से निकलेंगे। राजनैतिक पार्टियों और मजहबी ठेकेदारों की अनुपस्थिति एक सकारात्मक बात है।

सौभाग्य से यह आंदोलन अभी तक राजनैतिक पार्टियों के नेताओं से बचा हुआ है, यह आंदोलन सामासिक संस्कृति तोड़ने वालों के भी खिलाफ है. अकबरुद्दीन की कोई नहीं सुन रहा है न ही भूतपूर्व छात्रों के प्रायोजित बयान को कोई तवज्जो दे रहा है। मोजदी-शाह-योगी पूरी कोशिस इसे अपने एकमात्र हिंदू-मुस्लिम नरेटिव में ढालने की पूरी कोशिस कर रहे हैं, लेकिन लोग इनके तोड़ने की कोशिस नाकाम कर रहे हैं। शाह ने लखनऊ में कहा कुछ लोग खास समुदाय में भ्रम फैला रहे हैं लोग उनके शगूफे का जवाब कौमी एकता से दे रहे हैं, शाहीन बाग की औरतों ने बाग के मायने बदलकर बगावत कर दिया, हर जगह पहुंच रहा है शाहीन बाग -- लखनऊ, इलाहाबाद... पटना। जैसा मैंने ऊपर कहा कि यह कौमी एकता 1857-58 की क्रांति की याद दिलाती है। वीडियो में लखनऊ के घंटाघर में नारे लगाती लड़कियों के जज्बे देख कर भावुक हो गया। यह डर के विरुद्ध संचित आक्रोश है, चरम पर पहुंच कर डर खत्म हो जाता है, इश आंदोलन का कोई नेता नहीं, सब नेता हैं। ये नए जमाने की लड़कियां हैं, इन्हें भाई-बाप की सुरक्षा नहीं चाहिए, आजादी चाहिए, भाई-बाप को सुरक्षा देने की आजादी।

फुटनोट 353 (जन्मदिन)

जनसंदेश के संपादक सुभाष राय को जन्मदिन की बधाई देने में यह लिखा गया।

जन्मदिन की कोटिशः बधाइयां, सर्जक सक्रियता के साथ दीर्घायु की कामना। आप वास्तविक जन्मतिथि के अनुसार मुझसे 5 महीने बड़े निकले लेकिन मानी तो कागज की जाएगी, उसके अनुसार मैं आपसे 2 साल 11 महीना बड़ा हूं। उस जमाने में गांवों में जन्मदिन मनाने का रिवाज नहीं था, इसलिए जन्मकुंडली वाली विक्रम कैलेंडर की जन्मतिथि मालुम थी, रोमन कैलेंडर की नहीं। 2 कक्षाओं की कुदाई ( प्रि-प्रराइमरी यानि अलिफ [गदहिया गोल] से कक्षा 1 तथा कक्षा 4 से 5) के चलते1964 में मैंने 9 साल में ही प्राइमरी कर लिया। मेरे दादाजी (बाबा) पंचांग के ज्ञाता माने जाते थे उनकी सुंदर लिखावट के नमूने के तौर पर जन्मकुंडली संभाल कर रखा हूं। उस जमाने में आपको याद हो तो हाई स्कूल की परीक्षा की न्यूनतम आयु 15 वर्ष थी, 1 मार्च 1969 को 15 साल का करने के लिए बाबू साहब (हेड मास्टर बासदेव सिंह) के मन में 1954 फरवरी की जो भी तारीख (3) दिमाग में आई लिख दिया। मेरे पिताजी फैल गए कि लोग तो 2-3 साल कम लिखाते हैं और उन्होने मेरी डेढ़ साल ज्यादा लिख दिया? बाबू साहब के समझाने पर वे मान गए। उन दोनो की वार्तालाप से पता चला कि मेरी पैदाइश 1955 की होगी। बहुत दिनों बाद (जेएनयू में एमए करते हुए) देखा कि जन्मकुंडली के नीचे 26 जून 1955 लिखा था। तब से जन्मदिन मनाने लगा। एमफिल के दौरान तीनमूर्ति लाइब्रेरी में 1955 के हिंदी अखबारों से इसकी तस्दीक कर लिया।

आपको जन्मदिन की बधाई के लिए कमेंट लिखना शुरू किया और अपनी कहानी लेकर बैठ गया। एक बार फिर से जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई