धारा 370
ईश मिश्र
जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय 15 अगस्त 1947 को
नहीं हुआ था, औपनिवेशिक शासनों ने सत्ता के हस्तांकरण में देशी रजवाड़ों को छूट दी
थी कि वे चाहे हिंदुस्तान के साथ रहें चाहे पाकिस्तान के और चाहे स्वतंत्र। अंततः
नेहरू और शेख अब्दुल्ला से वार्ता के तहत राजानहरि सिंह ने भारत में विलय के
दस्तावेज (इंस्ट्रूमेंट ऑफ ऐक्सेसनन) पर सशर्त हस्ताक्षर किया। धारा 370 विलय दस्तावेज की एक शर्त थी। इसके
तहत रक्षा; विदेश संबंध; संचार तथा संधिपत्र (विलय के दस्तावेज) में वर्णित अन्य
अनुषांगिक मामलों के सिवा राज्य के लिए, नागरिकता, संपत्ति के स्वामित्व एवं मौलिक
अधिकारों समेत किसी मामले में कोई कानून भारतीय संसद राज्य सरकार की सहमति से ही
बना सकती थी। विशिष्ट दर्जे के संरक्षण सेबंधित ऐसे ही कानून हिमाचल प्रदेश,
अरुणाचल प्रदेश, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह तथा नागालैंड के जनजातीय इलाकों के लिए भी हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर के भारत में
विलय का ही मसला भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का मुद्दा बना हुआ है तथा अभी भी
संयुक्त राष्टआर सुरक्षापरिषद के एजेंडे पर है। 1974 में इंदिरा गांधी- शेख अब्दुल्लासमझौते
में भारत भारत सरकार द्वारा इस धारा की बरकरारी प्रमुख शर्त थी।
7 अक्टूबर 1949 को इस धारा की प्रासंगिकता पर
प्रश्नचिन्ह लगाते हुए क्रांतिकारी कवि हसलत मोहानी ने इस भेदभाव का कारण जानना
चाहा था। इसके जवाब में नेहरू सरकार में मंत्री तथा हरि सिंह पूर्व दीवान
गोपालस्वामी आय्यंगर ने कई कारण बताए उनमें एक था विलय की परिस्थितियों की
विशिष्टता, पाकिस्तान
से युद्ध तथा राज्य के एक हिस्से का “विद्रोहियों और दुश्मनों” के कब्जे में होना।
दर-असल आज तक की स्वायत्तता स्थाई बाशिंदों के प्रावधान को छोड़कर न के बराबर थी।
अन्य राज्यों की तुलना में एकमात्र फर्क संपत्ति के अधिकार तथा आंतरिक आपात काल से
संबंधित था। अन्यथा भारतीयसंविधान के सभी प्रावधान यहां भी लागू थे। राज्य की
सहमति के बिना आंतरिक आपातकाल नहींलागू हो सकता था। विशेष दर्जे के मामले में जम्मू-कश्मीर इकलौता राज्य नहीं
था। अन्य विभिन्न राज्यों को धारा 371 तथा 3971-ए से 371-आई के तहत विशेष राज्य का
दर्जा मिला हुआ है। संसद द्वारा आज इसे निरस्त करने के पहले यह धारा जम्मू-कश्मीर
की संविधान सभा की सहमति से ही निरस्त की जा सकती थी। इसे जैसा कि आज किया गया इसे
संविधान संशोधन द्वारा भी बदला जा सकता है किंतु इसकी न्यायिक समीक्षा की अपील भी
हो सकती है। देखना है कि कोई इसकी न्यायिक समीक्षा की अपील करता है या नहीं और
सर्वोत्त न्यायालय इस पर क्या रुख लेता है। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी से कश्मीर की सापेक्ष
स्वायत्तता को समाप्त करने का जो सिलसिला नेहरू सरकार ने शुरू किया था, उसे मोदी
सरकार ने तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया।
कश्मीर के बहाने राष्ट्रवाद का मुद्दा उठाकर सरकार का
मकसद आर्थिक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटकाना है। ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग की
कमी से 2 लाख लोग रोजगार खो चुके हैं तथा इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है अगले
कुछ महीनों में 6-8 लाख और लोग रोजगार खो सकते हैं। इसके पहले आईटी क्षेत्र में
लगभग 15 लाख लोग रोजगार खो चुके हैं। देश मंदी के दौर के मुहाने की तरफ बढ़ रहा
है। रिजर्व बैंक की एक विज्ञप्ति के अनुसार लोगों के घरेलू कर्ज का ग्राफ तेजी से
बढ़ रहा है तथा उनकी बचत का ग्राफ उतनी ही तेजी से गिर रहा है। शासक वर्ग कृतिम
अंतर्विरोधों को ज्यादा हवा देता है जिससे प्रमुख, आर्थिक अंतर्विरोध की धार कुंद
की जा सके। मुझे लगता है इस सरकार की कश्मीर नीति नोटबंदी और जीयसटी तथा
कॉरपोरेटीनआर्थिक नीतियों के दुष्परिणामों से ध्यान हटाने के लिए अपनाई गयी है,
लेकिन उल्टा भी हो सकता है।
अतिरिक्त सैन्य बल तैनात किए जा चुके हैं। मुख्यधारा के
नेताओं को नजरबंद किया जा चुका है। जम्मू में कर्फ्यू तथा श्रीनगर में धारा 144
लगाई जा चुकी है, देखना है प्रतिरोध होता है कि नहीं? होता है तो प्रतिरोध और दमन
क्या रूप लेते हैं? तथा देश की हालात पर क्या असर पड़ता है।
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