यह कमेंट पोस्ट के रूप में पोस्ट कर रहा हूं.
शुक्रिया, मित्रों. इलाहाबाद विवि पूर्व छात्रों के कई ग्रुपों- कुटुंब; चुंगी; माटी; .... -- ने मुझे जोड़ा और मठ की सुचिता बचाने के लिए निकाल दिया, बिना किसी कारण बताओ नोटिस के. बुरा नहीं लगा क्योंकि नएपन से आस्था को डर लगता है. यह पहला ग्रुप है जिसे नाम में रेसनल देख कर मैंने खुद भर्ती की अर्जी दी थी. अर्जी की मंजूरी के लिए शुक्रिया. उम्मीद है यहां टिक सकूंगा और तर्कशील विमर्श में योगदान कर सकूंगा. स्वस्थ जनतांत्रिक विमर्श के लिए जरूरी है सहभागियों का पूर्वाग्रह-दुराग्रह से मुक्त होना, ऐसा गांधीजी ने कहा था. दूसरा, विचारों के टकराव ही विचारों के इतिहास को गति देते हैं, इसलिए असहमति को खेत मेड़ की लड़ाई न मानी जाय. तीसरा, विषयांतर विमर्श को विकृत करता है, उससे बचना चाहिए. लेखक से किसी और बात पर सवाल करने हों या हिसाब मांगने हों तो अलग पोस्ट पर बहस की जानी चाहिए. चौथा खंडन-मंडन विचारों का होना चाहिए,निराधार निजी आक्षेप पीड़ादायक होता है और कटुता पैदा करता है. खंडन-मंडन तथ्य-तर्कों के आधार पर होना चाहिए, विरासती मान्यताओं के आधार पर नहीं. जरूरी नहीं कि हमारे पूर्वज हमसे अधिक बुद्धिमान रहे हों. इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता. हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को सहेज कर आगे बढ़ाती है. तभी तो हम पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंचे हैं. आप कहेंगे, पहुंचते ही प्रवचन! क्षमा कीजिएगा, छाछ फूंककर पीने का मामला है. अंतिम बात, मेरे नाम का सफिक्स विरासती है, जिसमें मेरा कोई योगदान नहीं है , प्रेफिक्स अर्जित है. संबोधन मेरी अर्जित पहचान को होना चाहिए. संक्षिप्त पहचान यह है कि मैं इविवि में 1972-76 में था उसके बाद जेयनयू. इविवि की बौद्धिक बुनियाद पर कुटिया जेयनयू में बनी, जो कायम है. यदि इस ग्रुप में सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर विमर्श में सार्थक योगदान दे सका तो धन्य समझूंगा.
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