मोदी के राज में गोमांस निर्यात उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है, एक आंकड़े के हिसाब से भारत के 5 बड़े गोमांस निर्यातकों में 4 ब्राह्मण हैं. मोदी जी का एक वीडियो वाइरल हो रहा है जिसमें वे मजा लेकर कह रहे हैं कि उनके कई जैनी मित्र इस धंधे से जुड़े हैं. मुजफ्फरनगर हत्या-बलात्कार-पलायन के एक प्रमुख नायक बड़े बूचड़खाने के मालिक हैं, हो-हल्ला के बाद उन्होने अपनी कंपनी 'छोड़ दी'. मेरे ख्याल से भारत ही ऐसा मुल्क है जहां गाय कूड़ेदान की गंदगी और प्लास्टिक खाती है. कैसे पुत्र हैं जो अपनी माता के साथ ऐसा कमीन व्यवहार करते हैं. अपनी जन्मदात्री मां का तो ध्यान देते नहीं पशुकुल की मां का क्या ध्यान देगे. मेरी मां तो दिवंगत हो गयी कोई गाय-भैंस, पीपल-नीम मेरे मां-बाप नहीं हैं फिर भी गायों की दुर्दशा चिंतित करती है, दर-असल संघियों के पास यहूदी नस्लवाद की हिमायत, अंगेजी/अमेरिकी साम्रज्यवाद की दलाली के अलावा कोई ठोस सामाजिक-आर्थिक विकास के कोई कार्यक्रम कभी रहा नहीं, न ही विश्व बैंक की चाकर इस सरकार के पास शिक्षा, जमीन, पानी, सैन्यतंत्र को उसके अधीन करने के तमाम अनुबंध करने के अलावा दिखाने को गरीबी और भुखमरी तथा मंहगाई ही है. हमेशा ही धर्मांध समाज की धार्मिक भावनाओं का दोहन ही इनका राजनैतिक औजार रहा है. इसके लिए मुसलमान शब्द के इर्द-गिर्द एक काल्पनिक दुश्मन खड़ा किया. सत्ता के लोभ में इन देश-द्रोहियों ने मुल्क किी सामासिक संस्कृति के टुकड़े टुकड़े कर दिया. इनके पास मंदिर, मुसनमान, कश्मीर ही मुद्दे रहे. इनको न मंदिर से कुछ लेना है न गाय से. गोरक्षक आतंकवादियों का मामला ऊना के दलित ऐलान ने उल्टा कर दिया और गोधरा के प्रायोजन से गुजरात नरसंहार के आयोजक मोदी ने 50 दिन बाद मुंह खोला. गाय का मुद्दा उल्टा पड़ गया तो कश्मीर में आग लगा दी, वह भी उल्टा पड़ा, दुनिया में थू-थू हो रही है. उ.प्र. का चुनाव तो गया. अब संघियों के पास 2019 की तैयारी में पाकिस्तान पर हमले के अलावा कोई और शगूफा नहीं बचेगा, लेकिन उसके लिए अनमरीका की इजाजत चाहिए, लेकिन अमरीका को दोनों देशों में सेवक सरकारें चाहिए. जिस रफ्तार से लोगों को गाय और कश्मीर की बहस में उलझाकर मोदी जी गुप-चुप मुल्क की नीलामी कर रहे हैं, 2019 तक हमारी वही हाल हो जाएगी जो प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी की हुई थी.
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