Tuesday, September 13, 2016

मार्क्सवाद 29

श्री प्रकाश जी, (Shree Prakash)अगर कम्युनिस्ट पार्टियों में गड़बड़ियां न होतीं तो मैं किसी कम्युनिस्ट पार्टी में होता. मैंने कई लेखों में विस्तार से लिखा है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद को समाज को समझने के विज्ञान के रूप में समाज की ठोस परिस्थितियों के अनुसार ढालने की बजाय मिशाल के रूप में अपना लिया. य़ूरोप में जन्मजात योग्यता पुनर्जागरण और प्रबोधन आंदोलनों के दौरान समाप्त हो चुका था सामाजिक विभाजन का आधार सिर्फ आर्थिक था. यहां कबीर के साथ शुरू हुआ नवजागरण (पुनर्जागरण नहीं) अन्यान्य कारणों से तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका तथा मार्क्स की अपेक्षानुसार पूंजीवाद के विस्तार के लिए औपनिवेशिक शासन ने 'एसियाटिक मोड' (वर्णाश्रम प्रणाली) को तोड़ने की बजाय उसका इस्तेमाल लूट में इज़ाफे के लिए किया. जितने सर और रायसाहब आदि बनाए सब लगभग सवर्ण. ऊपर दिए लिंक्स के चारों लेखों में मैंने इसका वर्णन किया है. शिक्षा का सार्वभौमीकरण, अंग्रेजी राज का अनचाहा सकारात्मक परिणाम है. समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में "ज्ञान, शिक्षा और वर्चस्व" लेख में भी इस पर विस्तार से लिखा है. उसका लिंक भी नीचे दे रहा हूं. स्वतंत्रता आंदोलन ने भी जाति के मुद्दे को दूर ही रखा. यहां के कम्ययुनिस्टों की दोहरी जिम्मेदारी थी -- बुर्जुआ डेमोक्रेटिक क्रांति का अधूरा काम पूरा करना, यानि वर्णाश्रम के विरुद्ध संघर्ष तथा समाजवादी चेतना का निर्माण. यद्यपि जाति उत्पीड़न के विरुद्ध कम्युनिस्ट लड़े लेकिन इसे सैद्धांतिक मुद्दा नहीं बना पाए जो काम पेरियार और अंबेडकर ने किया. रोहित की शहादत ने जयभीम-लाल सलाम नारे की प्रतीकात्मक एकता स्थापित की, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है न कि कमजोर करने की, और हमारे बच्चे समझदार हैं, चुनाव की कटुता जल्द ही भूलकर साथ लड़ेंगे क्यों की कॉरपोरेटी ब्राह्मणवाद का हमला साझा है, प्रतिरोध भी साझा होना चाहिए. जन्म के आधार पर व्यक्तितव का मूल्यांन बंद करना पड़ेगा. मिश्राओं को भी वैज्ञानिक सोच विकसित करने का हक़ होना चाहिए.

No comments:

Post a Comment